Book Title: Gyanpushpa
Author(s): Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publisher: Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada

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Page 145
________________ का अनुभव करता है। उसका अंतरात्मा सद्गुरू जाग्रत रहता है, वह विभाव भाव और सम्पूर्ण जगत का साक्षी रहता है, अपने स्वरूप में लीन होकर स्वयं देव पद प्राप्त करता है। गाथा-१२ ज्ञान की वृद्धि और सिद्धि को पाने का उपाय जिनं च परम जिनयं, न्यानं पंचामि अधिरं जोयं । न्यानेन न्यान विध, ममल सुभावेन सिद्धि संपत्तं ॥ अन्वयार्थ - (जिन) आत्मा वीतराग जिन स्वरूप है (परम जिनयं) परम जिन है (अपिर) अक्षय, अविनाशी (न्यानं पंचामि) पंचम ज्ञान, केवलज्ञान स्वभाव को (जोयं) संजोओ, साधना करो (क्योंकि) (न्यानेन ) ज्ञान से (न्यान) ज्ञान की (विध) वृद्धि होती है (च) और (ममल सुभावेन) ममल स्वभाव में रहने से (सिद्धि संपत्त) सिद्धि की सम्पत्ति प्राप्त होती है। अर्थ- आत्मा वीतराग जिन स्वरूप है, परम जिन है, ऐसे अक्षय अविनाशी पंचम ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान स्वभाव को संजोओ, इसी की साधना करो क्योंकि ज्ञान से ज्ञान की वृद्धि होती है और ममल स्वभाव में रहने से सिद्धि की सम्पत्ति प्राप्त होती है। प्रश्न १- आत्मा जिन और परम जिन है इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर - आत्मा स्वभाव से वीतराग है, परम जिन अर्थात् अरिहन्त सर्वज्ञ स्वरूप जिनेन्द्र पद वाला __ है। यहाँ जिन का अर्थ वीतराग और परम जिन का अर्थ परम जिनेन्द्र स्वरूप है। प्रश्न २- पंचम ज्ञान को अक्षर स्वभाव क्यों कहा गया है? उत्तर - संस्कृत व्याकरण में अक्षर की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है-'न क्षरति इति अक्षर:' अर्थात् जिसका कभी क्षरण नहीं होता उसे अक्षर कहते हैं। पंचम ज्ञान केवलज्ञान है यह ज्ञान कभी क्षरण को प्राप्त नहीं होता। यह अविनाशी है अक्षय है तथा केवलज्ञान स्वभाव संसार के प्रत्येक जीव का स्वभाव है इसलिये पंचम ज्ञान को अक्षर स्वभाव कहा गया है। प्रश्न ३- 'न्यानेन न्यान विध' का क्या अर्थ है? उत्तर - सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अपने स्वभाव की सुरत ध्यान रखता है, ज्ञानोपयोग करता है, इस साधना से ज्ञानी के अंतर में ज्ञान से ज्ञान बढ़ता है यही न्यानेन न्यान विधु का अर्थ है। गाथा - १३ चिदानन्द मय रहने से कर्मों का क्षय चिदानंद चितवन, चेयन आनंद सहाव आनंद । कम्म मल पयडि विपन, ममल सहावेन अन्मोय संजुत्तं ॥ अन्वयार्थ - (चिदानंद) चिदानंद स्वभाव का (चिंतवन) चिंतवन करो (चेयन) चैतन्य (सहाव) स्वभाव के (आनंद) आनंद में (आनंद) आनंदित रहो (ममल सहावेन) ममल स्वभाव के आश्रय रहो (अन्मोय) इसी की अनुमोदना करो (संजुत्तं) इसी में लीन हो जाओ [इससे] (कम्म मल) कर्म मलों की (पयडि) प्रकृतियाँ (विपन) क्षय हो जायेंगी।

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