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भक्ति भक्ति करूं सत देव की, गुरू शास्त्र की व्यवहार से । निश्चय अपेक्षा गाढ़ प्रीति, हो समय के सार से || सु ज्ञान का दीपक जला, मोहान्ध की कर दूं विदा । इस हेतु से भक्ति करूं, पा जाऊं शिव पद शर्मदा ॥ ३२ ॥
वात्सल्य
साधर्मियों से हे प्रभो, मुझको सदा वात्सल्य हो । ईयादि दोष विहीन मेरा, मन सदा नि:शल्य हो । चैतन्य मूर्ति आत्मा से, प्रीति हो अनुराग हो । निज में रमू निज में जमू, आठों करम का त्याग हो ॥ ३३ ॥ निष्कर्म पद की प्राप्ति हेतु, वत्सलत्व ग्रहण करूं । होगी सफल पूजा तभी, जब मैं भवोदधि से तरूं ||
अनुकम्पा संसार के षट् काय जीवों पर, दया परिणाम हो । मुझसे कभी कोई दु:खी न हो, सुबह या शाम हो ॥ ३४ ॥ मेरी रहे मुझ पर दया, आतम दु:खी न हो कभी । निज आत्मा से दूर ठहरें, मोह रागादिक सभी ।। मैं मुक्ति फल की प्राप्ति हेतु, शुद्ध अनुकम्पा धरूं । शुद्धात्मा में लीन होकर, मुक्ति की प्राप्ति करूं ॥ ३५ ॥ अष्टांग अरू गुण सहित, संयम आचरण पथ पर चलूं । होकर विरागी वीतरागी, कर्म के दल को दलूं | सम्पूर्ण पापों से रहित, व्रत महाव्रत को आचरूं । निज रूप में तल्लीन हो, अरिहन्त पद प्राप्ति करूं ॥ ३६ ॥ सब कर्म विघटे ज्ञान प्रगटे, पूर्ण शुद्ध दशा प्रभो । आठों सुगुण प्रगटें सुसम्यक्, ज्ञान दर्शन शुद्ध जो ॥ अगुरूलघु अवगाहना, सूक्ष्मत्व वीरज के धनी । बाधा रहित निर्लेप हैं प्रभु सिद्ध, लोक शिखा मणी ॥ ३७ ॥ निश्चय तथा व्यवहार से, मुक्ति का शाश्वत पंथ है। भीतर हुआ है स्वानुभव, तब आचरण निर्ग्रन्थ है || हो पूज्य के सम आचरण, पूजा वही सच्ची कही। गर आचरण में भेद है, तो फिर हुई पूजा नहीं ॥ ३८ ॥