Book Title: Gyanpushpa
Author(s): Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publisher: Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada

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Page 132
________________ हो) उदय करो (यहु) यह (दिपि दिपियो हो) दैदीप्यमान हो रहा है (पर्म ज्योति) यही परम ज्योति स्वरूप (अप्प सहाए) आत्म स्वभाव है (लहि लहियो हो) इसी को ग्रहण करो (अंगदि अंगह) यह सर्वांग (सुद्ध सुभाए) शुद्ध स्वभावी है [ज्ञानी] (अंग सर्वगह) प्रदेश - प्रदेश में सर्वांग (ममल सुभाए) ममल स्वभाव में (मैं मइयो हो) तन्मय रहता है। रहि रहियो हो सुष्यम सहियो ममल सुभाए । गहि गहियो हो नन्तानन्त सु गगन सहाए । उगि उगियो हो ऊर्धह सुद्धह मुक्ति सुभाए । मल रहियो हो ममल बुद्धि यह षिपक सहाए ॥ ५ ॥ अर्थ - [अपने] (सुष्यम) सूक्ष्म अर्थात् स्वानुभव गम्य (सहियो ममल सुभाए) ममल स्वभाव सहित (रहि रहियो हो) रहो (गहि गहियो हो) इसी को ग्रहण करो (सु गगन सहाए) स्व स्वरूप आकाश के समान निर्मल (नन्तानन्त) अनंतानंत है (ऊर्धह) श्रेष्ठ है [ऐसे महिमामय] (सुद्धह मुक्ति सुभाए) शुद्ध मुक्ति स्वभाव का (उगि उगियो हो) उदय हो रहा है (यह) यह (मल रहियो हो) मल रहित (षिपक सहाए) क्षायिक स्वभाव है (ममल बुद्धि) जो ममल ज्ञान स्वरूप है। उव उवनो हो, दिस्टि देई सो देव सुभाए । सहकारे हो, देइ अनन्तु जु अन्मोय सुभाए ॥ दर दरसिउ हो, देइ सु दर्सन न्यान सहाए। औकासह हो, उपजै न्यानु सु रयन सुभाए ॥ ६ ॥ अर्थ - हे आत्मन ! अपना ऊंकारमयी (देव सभाए) देव स्वभाव (उव उवनो हो) उदित हआ है (सो दिस्टि देई) इसी पर दृष्टि रखो (सहकारे हो) इसी का सहकार करो (अन्मोय सुभाए) स्वभाव की अनुमोदना (देइ अनन्तु जु) अनंत चतुष्टय को देने वाली है [इसलिये] (दर्सन न्यान) दर्शन ज्ञानमयी (सु देइ सहाए) स्वयं के देव स्वभाव का (दर दरसिउ हो) दर्शन करो (औकासह हो) इसी में ठहरो (सु रयन सुभाए) स्वयं के रत्नत्रयमयी स्वभाव में रहने से (उपजै न्यानु) पूर्ण ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न हो जावेगा। गुरु गुरवति हो, लोयालोय सु ममल सुभाए। गुरु गुपित सु हो, दिउ दीन्हउ चरन सहाए । चरि चरियो हो, ममल दिस्टि यहु अप्प सुभाए। तव यरियो हो, सहकारे जिनु सहज सुभाए ॥ ७ ॥ अर्थ- [हे आत्मन् !] (गुरु गुरवति हो) सच्चे ज्ञानी वीतरागी सद्गुरु ने बतलाया है कि (सु ममल सुभाए) अपना ममल स्वभाव (लोयालोय) लोकालोक को जानने वाला है (गुरु गुपित सु हो) अंतरात्मा गुप्त गुरु है जिसके जाग्रत होने पर (चरन सहाए) चारित्र स्वभाव जो] (दिट्ठउ दीन्हउ) दृष्टि में आया है (यहु अप्प सुभाए) इसी आत्म स्वभाव में (ममल दिस्टि) ममल दृष्टि पूर्वक (चरि चरियो हो) आचरण करो (सहज जिनु सुभाए) सहज जिन स्वभाव का (सहकारे) सहकार करो अर्थात् लीन रहो (तव यरियो हो) यही तपश्चरण [तप काआचरण] है।

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