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आचार्य देव कहते हैं कि हे भव्यात्मनो ! मुक्ति श्री के आनंद में निमग्न रहो। अपने ज्ञान के सहारे पने ज्ञान स्वभाव में लीनता का पुरुषार्थ ही मुक्ति श्री का निराकुल सुख प्रदान करने वाला है। अपने स्वभाव में रहने से संसार के परिभ्रमण में निमित्तभूत कर्म उत्पन्न नहीं होते। अपने चैतन्य स्वरूप परमात्म सत्ता को ग्रहण करो। इसी का चिंतन - मनन करो। स्वभाव में लीनता से संसार का परिभ्रमण छूट जाता है।
परोन्मुखी दृष्टि संसार की कारण है। आत्मोन्मुखी दृष्टि मोक्षमार्ग में साधन है। मन में जो अनेक प्रकार की मान्यताओं का शैल शिखर है यही बंधन है, संसार है। संयोगों में रहते हुए ज्ञानी अज्ञान जनित मान्यताओं के बंधनों को ज्ञान के बल से मिटाता है तत्प्रमाण वह मुक्ति श्री के अमृत रस का पात्र होता है।
सच्चे गुरु के हृदय में करुणा का सागर लहराता रहता है। इसलिये आचार्य श्री तारण स्वामी जी ने कहा है कि सभी जीव आत्मज्ञान को उपलब्ध हों और मुक्ति श्री को प्राप्त करें मुझे अत्यंत हर्ष होगा। ऐसी करुणा तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति के बंध का कारण होती है।
अतीन्द्रिय आत्म स्वभाव को धारण करना, इसी का ध्यान, ग्रहण, सहकार, दर्शन, आचरण यही सच्चा पुरुषार्थ है। अंतरंग में स्वानुभूति हेतु आचार्य प्रेरणा प्रदान करते हैं कि स्वभाव उदित हो रहा है, प्रकाशमान अनुभव में वर्त रहा है यही नंद, आनंद, चिदानंदमयी परमात्म स्वरूप है।
रत्नत्रयमयी स्वरूप को भूलकर पर्याय से युक्त होने पर अनिष्टकारी अनंत कर्मों का आस्रव बंध होता है। ममल ज्ञान स्वभाव में रहने से कर्म क्षय हो जाते हैं। पर पर्याय पर दृष्टि नहीं देना ही ममल स्वभाव है।
जो भव्य जीव रत्न के समान रत्नत्रयमयी स्वरूप का आश्रय लेते हैं वे अपने चैतन्य ज्योति स्वरूप में लीन हो जाते हैं यही मुक्ति श्री है।
अभ्यास के प्रश्न प्रश्न १ - रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए -
१...............स्वभाव में रहने से शरीर प्राप्त कराने वाले कर्म उत्पन्न नहीं होते। २. शुद्धोपयोगमयी..............संसार रूपी भँवर को विनष्ट करने वाली है। ३. स्वयं के..............स्वभाव में रहने से पूर्ण ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होता है।
४. अपना ममल स्वभाव..............को जानने वाला है। प्रश्न २ - सही जोड़ी बनाइये - १. चलि - उदियो हो इष्ट संजोगे । २. उदि - रहियो हो सुष्यम
सहियो। ३. रहि - उपजै हो कम्मु अनन्तु अनिष्ट । ४. उप - चलहु न हो मुक्ति सिरी। प्रश्न३ - अति लघुउत्तरीय प्रश्न - (क) कललंकृत हो कम्म न उपजै का क्या अर्थ है ? उत्तर - ममल स्वभाव में रहने से शरीर प्राप्त कराने वाले कर्म नहीं उपजते यही इस पंक्ति का अर्थ है।
(ख) तपश्रण क्या है ? उत्तर - सहज जिन स्वभाव का सहकार करना अर्थात् लीन रहना ही तपश्चरण है। प्रश्न ४ - दीर्घ उत्तरीय प्रश्न - मुक्ति श्री फूलना का कोई रुचिकर छंद लिखकर फूलना का सारांश
लिखिये।