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सतदेव परमेष्ठी मयी, जिसका कि ज्ञान महान है । जिसमें झलकता है स्वयं, यह आत्मा भगवान है || ऐसा परम परमात्मा, निश्चय निजातम रूप है । जो देह देवालय बसा, शुद्धात्मा चिद्रूप है ॥ ३ ॥ जो शुद्ध समकित से हुए, वे करें पूजा देव की । पर से हटाकर दृष्टि, अनुभूति करें स्वयमेव की । निज आत्मा का अनुभवन, परमार्थ पूजा है यही । जिनराज शासन में इसे, कल्याणकारी है कही ॥ ४ ॥ मैं शुद्ध पूजा देव की, करता हूँ माँ हे ! सरस्वती । यह भाव पूजा नित्य करते, विज्ञजन ज्ञानी व्रती ॥ निश्चय सु पूजा में नहीं, आडम्बरों का काम है । पर में भटकने से कभी, मिलता न आतम राम है ॥ ५ ॥ किरिया करें पूजा कहें, कैसी जगत की रीति है । पूजा कभी होगी न उनकी, जिन्हें पर से प्रीति है | जब आत्मदर्शन हो नहीं,फिर प्रपंचों से लाभ क्या । जब आत्मदर्शन हो सही,फिर प्रपंचों से काम क्या ॥ ६ ॥
पूजा की विधि मैं एक दर्शन ज्ञान मय, शाश्वत सदा सुख धाम हूँ । चैतन्यता से मैं अलंकृत, अमर आतम राम हूँ | संसार में बस इष्ट मेरा, यही शुद्ध स्वभाव है । जो स्वयं में परिपूर्ण है, जिसमें न कोई विभाव है ॥ ७ ॥ चिन्तामणी सम स्वयं का, चैतन्य तत्व महान है । निज का करूं मैं चिन्तवन, निज का करूं श्रद्धान है ॥ शुद्धात्मा ही देव है जो, गुण अनन्त निधान है । मैं स्वानुभव में देख लूं, आतम स्वयं भगवान है ॥ ८ ॥ जो हैं विचक्षण योगिजन, कर योग की निस्पंदना । ओंकार मयी धुव धाम की, करते सदा वे वन्दना ।। पर से हटा उपयोग को, करते निजातम अनुभवन । इस तरह होता है प्रभु, अरिहन्त सिद्धों को नमन ॥ ९ ॥ अध्यात्म भक्ति करके ज्ञानी, आत्मा को जानते । जो देव निज शुद्धात्मा, निश्चय उसे पहिचानते ॥