Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 17
________________ प्रस्तावना ११ स्वाश्रित स्वरूपको देखती है और दूस री नयदृष्टि पराश्रित है-परके निमित्तसे होनेवाले भावोंको भी उस वस्तुका मान कर देखती है। स्वाश्रित दृष्टि निश्चयनय है और पराश्रित दृष्टि व्यवहारनय है। आगममें इन दोनों नयों जाव और कर्मका कथन किया गया है। निश्चय और व्यवहारकथनके कुछ उदाहरण इस प्रकार है १. व्यवहारनय कहता है जीव और शरीर एक है। निश्चयनय कहता है जीव और शरीर कभी भी एक नहीं हैं । इन दोनों कथनों में से किसका कथन यथार्थ है और किसका कथन असत्य है यह मोटी बुद्धिवाला भी जान सकता है। क्योंकि मृत्यु होनेपर शरीर पड़ा रहता है और जीव निकल जाता है । अतः जोव और शरीर एक नहीं हैं। इसो तरह आत्मामें कर्मका निमित्त पाकर होनेवाले जो भावादि हैं वे भी व्यवहारसे जोव या जीवके कहे जाते हैं किन्तु ययार्थ में तो वे जीव नहीं हैं । उदाहरण के लिए व्यवहारसे कर्मबन्ध के कारण जीवको मूर्तिक कहा जाता है। जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ये चार गुण होते हैं उसे मतिक कहते हैं। किन्तु जोवमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि नहीं होते। यदि होते तो जीव और पु कोई अन्तर नहीं रहता। इसी तरह कर्मसिद्धान्त वणित वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अनुभागस्थान, योगस्थान, स्थितिबन्धस्यान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, यहाँ तक कि गुणस्थान और जीव समास भी जीवके नहीं है । क्योंकि ये सभी पुद्गल द्रव्यके संयोगसे निष्पन्न होते हैं। इसीसे समसार (गा. ५६) में कहा है कि रूपसे लेकर गुणस्थान पर्यन्त भाव व्यवहारनयसे जोवके कहे हैं। क्योंकि व्यवहारनय पर्यायाश्रित होनेसे पुद्गलके संयोगवश अनदि सिद्ध बन्धपर्यायको लेकर परके भावोंको परका कहता है। किन्तु निश्चयनय द्रव्याश्रित होनेसे केवल जीवके स्वाभाविक भावको ही जीवका कहता है और प्रभावका निषेध करता है इसलिए निश्चयसे ये जीवके नहीं हैं। ये सब संसारी जीवों में ही पाये जाते हैं। मुक्तजीवोंमें नहीं पाये जाते। इससे सिद्ध है वे सब कर्मके सम्बन्धसे होनेसे आगन्तुक हैं उनके साथ जोवका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हैं, संयोग सम्बन्ध मात्र हैं। संयोग सम्बन्ध दो भिन्न द्रव्यों में ही होता है। यदि उक्त सबको जीवका कहा जायेगा तो जीव और अजीवमें कोई अन्तर नहीं रहेगा। इसी तरह एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त ये सब नामकर्मकी प्रकृतियाँ है । इन्हींके मेलसे चौदह जीव समास बनते हैं। तब उन्हें जीव कसे कहा जा सकता है ? जैसे किसी व्यक्तिने जन्मसे हो घोका घड़ा देखा था, वह घोसे भिन्न घड़ेको जानता नहीं था उसको समझानेके लिए कहा जाता है कि जो यह घीका घड़ा कहा जाता है वह मिट्टी से बना है घीसे नहीं बना। किन्तु उसमें घी रखा जाता है इससे उसे घोका घड़ा कहा जाता है। इसी प्रकार अज्ञानी लोग अनादिसे अशुद्ध जीवको ही जीव जानते हैं, शुद्ध जीवको नहीं जानते। उनको समझाने के लिए कहा गया है कि यह जो वर्णादि वाला जीव है वह ज्ञानमय है वर्णादिमय नहीं है । अतः प्रसिद्धिवश जीवको वर्णादिमान व्यवहारसे कहा है। इसी प्रकार जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है ये पौद्गलिक मोहकर्मके उदयसे कहे गये हैं । अतः जैसे जोसे पैदा हुए जो ही होते हैं उसी तरह ये भी पुद्गल ही हैं जोव नहीं है। इसी तरह राग, द्वेष, मोह, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, अध्यवस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान आदि भी पुद्गल कर्म पूर्वक होनेसे पुद्गल ही हैं जीव नहीं हैं। व्यवहारसे ही इन्हें आगममें जीव कहा है क्योंकि ये परके निमित्तसे जीवमें होते हैं। ऐसी स्थितिमें व्यवहारको सर्वथा सत्य कसे कहा जा सकता है। वह तो केवल व्यवहार रूपसे ही सत्य है। परमार्थ सत्य तो निश्नयनयका ही विषय है क्योंकि वह जीवके वास्तविक स्वरूपको कहता है जो नित्य अविनाशी है, परके निमित्त से नहीं होता है। हमने पूर्व में कहा है कि व्यवहार पराश्रित होता है पर निमित्तसे होनेवाले भावोंको भी जीवका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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