Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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प्रस्तावना
अभिनिवेशको दूर करके और अपने आत्मस्वरूपको सम्यकरूपसे निश्चित करके उससे विचलित न होना ही पुरुषार्थ मोक्षकी सिद्धिका उपाय है । ( १२-१५ श्लो.)
अनः यह सिद्ध होता है कि जीव और पुद्गलकर्ममें निमित्त-नैमित्तिकभाव है। किन्तु यह कथन भी बाहादष्टिन। अमनदीप को जो गावों में और कर्ममें निमित्त-नैमित्तिकभाव है, जीव और कर्म में नहीं। क्योंकि यदि स्वयं जीवको कर्मका नामत्त मान लिया जायेगा तो वह सदा हो कर्ता बना रहेगा और इस तरह मुक्ति नहीं हो सकेगी।
कर्म और जीवमें परस्परमें निमित्त नैमित्तिक भावको लेकर प्रवचनसार गाथा १२१ की टीकामें जो कयन किया है वह भी द्रष्टव्य है
उसकी उत्यानिकामें कहा है-परिणामात्मक संसारमें किस कारणसे पुद्गलका सम्बन्ध होता है जिससे वह मनुष्यादि पर्यायरूप होता है ? इसके समाधान में कहा है-'यह जो आत्माका संसार नामक परिणाम है वही द्रव्यकर्म के श्लेषका कारण है ।
प्रश्न-उस प्रकारके परिणामका कारण कौन है ?
उत्तर-उसका कारण द्रव्यकर्म है। क्योंकि द्रव्यकर्मसे संयुक्त होनेसे हो उस प्रकारका परिणाम पाया जाता है।
प्रश्न-ऐसा होनेसे इतेरतराश्रय दोष आता है, क्योंकि उस प्रकारके परिणाम होने पर द्रव्यकर्मका श्लेष होता है और उसके होनेपर उस प्रकारके परिणाम होते हैं ?
उत्तर-नहीं आता, क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकमके साथ सम्बद्ध आत्माका जो पूर्वका द्रव्धकर्म है उसको कारण रूपसे स्वीकार किया है। इस प्रकार नवोन द्रव्यकर्म उसका कार्य होनेसे और पुराना द्रव्यकर्म उसका कारण होनेसे आत्माका उस प्रकारका परिणाम द्रव्यकर्म ही है। अतः आत्मा आत्मपरिणामका कर्ता होनेसे उपचारसे द्रव्यकर्मका भो कर्ता है। परमार्थ से आत्मा द्रव्यकर्मका कर्ता नहीं है।
कर्मका कर्ता-भोक्ता कौन--पहले बतला आये हैं कि जैन धर्ममें केवल जीवके द्वारा किये गये अच्छे-बरे कर्मों का नाम कर्म नहीं है, किन्तु जीवके कामों के निमितसे आकृष्ट होकर जो पुद्गल परमाण उस जीवसे बन्धको प्राप्त होते हैं वे भी कर्म कहे जाते हैं। तथा उन पुद्गल परमाणुओंके फलोन्मुख होनेपर उनके निमित्तसे जीवमें जो काम-क्रोधादि भाव होते हैं, वे भी कर्म कहे जाते हैं। पहले प्रकारके कर्मोंको द्रव्यकर्म और दूसरे प्रकारके कर्मोको भावकर्म कहते हैं। जीवके साथ उनका अनादि सम्बन्ध है। इन कर्मों के कर्तृत्व और भोक्तृत्वके बारेमें जब हम निश्चयदृष्टि से विचार करते हैं तो जीव न तो द्रव्यकर्मों का कर्ता हो प्रमाणित होता है और न उनके फलका भोक्ता ही प्रमाणित होता है; क्योंकि द्रव्यकर्म पौद्गलिक हैं, पुद्गल द्रव्यके विकार है, उनका कर्ता चेतन जीव कैसे हो सकता है। चेतनका कर्म चैतन्यरूप होता है और अचेतनका कर्म अचेतनरूप। यदि चेतनका कर्म भी अचेतनरूप होने लगे तो चेतन-अचेतनका भेद नष्ट होनेसे महान् संकर दोष उपस्थित होगा। अतः प्रत्येक द्रव्य स्वभावका कर्ता है, परभावका कर्ता नहीं है। जैसे जल स्वभावसे शोतल होता है। किन्तु आगके सम्बन्धसे उष्ण हो जाता है। यहां उष्णताका कर्ता जल नहीं है। उष्णता तो आगका धर्म है। जलमें उष्णता आगके सम्बन्धसे आती है। अतः आगन्तुक है । आगका सम्बन्ध छूटते ही चली जाती है। इसी प्रकार
अशुद्ध भावोंका निमित्त पाकर जो पुद्गल कर्मरूप परिणत होते हैं उनका कर्ता स्वयं पुद्गल ही है. जीव उनका कर्ता नहीं है। जीव तो अपने भावोंका कर्ता है। जैसे सांख्यके मतमें पुरुषके संयोगसे प्रकृतिका कर्तृत्व गुण व्यक्त हो जाता है। और वह सृष्टि प्रक्रियाको उत्पन्न करना शुरू कर देता है तथापि पुरुष अकर्ता ही कहा जाता है, उसी तरह जीवके राग-द्वेषादि रूप अशुद्ध भावोंका निमित्त पाकर पुदगल द्रव्य उसको ओर स्वतः आकृष्ट होता है, उसमें जीवका कर्तत्व नहीं है। जैसे यदि कोई सुन्दर युवा पुरुष
प्रस्ता०-२
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