Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 5
________________ दव्त्रसंग । प्रस्तावना आ. कुन्दकुन्द का स्पष्ट उद्घोष है कि दंसण मूलो धम्मो। सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग का प्रथम चरण है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुए विना जीव सच्चा धार्मिक नहीं हो सकता। जिन प्राणियों को कषायों की लपटें धू-धू कर जला रही हैं, उन के लिए सम्यग्दर्शन परम शीतलता है। जो जीव विषय रूपी भुजंग से दंशित हैं, उन के लिए सम्यग्दर्शन नागदमणि है। जन्म-जरा-मरण रूपी रोग को नष्ट करने के लिए सम्यग्दर्शन रामबाण औषधि है। सम्यग्दर्शन परम रत्न है। जिस जीव के पास सम्यग्दर्शन रूपी अनमोल निधि है, उसी जीव का जीवन सफल है तथा धन्य है। आ. कुलभद्र कहते हैं कि - वर नरकवासोजप, सम्यक्त्वेन समायुतः। न तु सम्यक्त्वहीनस्य, निवासो दिवि राजते॥ [सार समुच्चय - 39] अर्थात् : सम्यग्दर्शन सहित नरक में वास करना श्रेष्ठ है, किन्तु सम्यक्त्व हीन का स्वर्ग में निवास करना भी शोभा को प्राप्त नहीं होता। __ ऐसे अचिन्त्य महिमावन्त सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के लिए षड् द्रव्य, पंच-अस्तिकाय, सस तत्त्व और नव-पदार्थों पर सम्यक् श्रद्धान करना, परमावश्यक है। सम्यग्दर्शन को परिभाषित करते हुए आ. कुन्दकुन्द लिखते हैं कि - छ दव्य णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिहिट्ठा। सहइ ताण एवं सो सहिट्ठी मुणेयव्यो।। __ [दर्शनपाहुड - 19] अर्थात् : छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सप्त तत्त्व कहे गये हैं। उन के स्वरूप का श्रद्धान करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानना चाहिये। ___ उन द्रव्यादिकों का समीचीन श्रद्धान तभी हो सकता है, जब उन के यथार्थ । स्वरूप का ज्ञान होगा। द्रव्यों के या तत्त्वों के स्वरूप का प्रतिपादन करने के

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