Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 4
________________ दश्वसंगह (अनुवादिका की कलम से) प. पू. परम गुरुदेव, युवामुनि 108 श्री सुविधिसागर जी महाराज का कथन है कि - जिनालयों का जिर्णोद्धार करना जितना आवश्यक है, उतना ही प्राचीन ग्रंथों का संरक्षण व प्रकाशन आवश्यक है। गुरुदेव विहार करते हुए जहाँ भी पहुँचते हैं, वहाँ वे किसी ग्रंथ का अन्वेषण अवश्य करते हैं। ___ 1999 का चातुर्मास बिहार प्रान्तीय आरा नगरी में हुआ था। चातुर्मास के कुछ दिन पूर्व वहाँ की सुप्रसिद्ध संस्था जैन बाला विश्राम में संघ विराजमान था। वहाँ वयोवृद्ध विद्वान् श्री गोकुलचन्द जैन गुरुदेव के दर्शनार्थ पधारे। चर्चा के समय उन के द्वारा सम्पादित परन्तु अननुवादित ग्रंथ दव्धसंगह का उल्लेख उन्होंने किया। गुरुदेव ने उन से ग्रंथ की प्रति प्राप्त कर के प्रतिलिपि तैयार की। ___ संघीय स्वाध्याय के रूप में इस ग्रंथ का 213 बार स्वाध्याय हुआ। गुरुदेव ने ग्रंथ का राष्ट्रीय भाषा में अनुवाद करने का आदेश मुझे दिया। मैं गुरुदेव के आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन का बल पा कर यह कार्य करने का साहस कर सकी। __ प्रभाचन्द्राचार्य विरचित टीका यद्यपि अत्यन्त संक्षिप्त है, तथापि टीका के माध्यम से ग्रंथ के हार्द तक पहुँचना आसान हो जाता है। इस टीका की यह विशेषता है कि द्रव्यसंग्रह के अनेक पाठान्तरों से पाठक परिचित हो जाता है। यही नहीं, ग्रंश्च में आगत समस्त पारिभाषिक शब्दों की संक्षिस परिभाषा टीका में पायी जाती है। अतः टीका अत्यन्त उपयुक्त है। | मैं संस्कृत भाषा की विशेष ज्ञाता नहीं हूँ, अतः सम्भव है कि कुछ त्रुटियाँ हो गयी हो, प्रबुद्ध पाठक इस विषय में मुझे अवगत कराने का कष्ट करें। यह अनुवाद यदि पाठकों का श्रुतज्ञान विकसित करने में सहयोगी बन सका, तो मुझे अत्यन्त हर्ष होगा। समस्त सहयोगियों को मेरा साधुवाद । आर्यिका सुविधमती ।

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