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[लाट नवसारिका खण्ड परन्तु डाक्टर फ्लीट द्वारा संपादित लेखसे प्रकट होता है कि पुलकेशी द्वितीयके लिये भी "नागवर्धन पदानुध्यात पदका प्रयोग किया गया है। अतएव डाक्टर फ्लीट "नागवर्धन पादानुष्यात” पदका अर्थ किसी देव विशेषका करते हैं । पण्डित भगवान लाल इन्द्रजी भी फ्लीट महोदयके कथनसे सहमत हैं । हमारी दृष्टिमें भी उक्त विद्वानोंकी धारणा सत्य प्रतीत होती है । क्योंकि "नागवर्धन पादानुष्यात” पदका प्रयोग नागवर्धनके लेखमेंभी पाया जाता है । यदि हम देवताका ग्रहण न करें तो पिता पुत्र दोनोंका एकका उत्तराधिकारी होना सिद्व होता है । यह क्योंकर हो सकता है ? अतः "नागवर्धन पादानुध्यात" पदका यथार्थ भाव देवता ग्रहण करनेसे ही सिद्ध होगा।
विक्रमादित्यका उत्तराधिकारी धराश्रय जयसिंह और उसका उत्तराधिकारी श्री आश्रय शिलादित्य प्रकट होता है। यही शिलादित्य इस ताम्रपत्रका शासन कर्ता है। परन्तु वातापिके चौलुक्य वंशावलीमें न तो जयसिंयका और न उसके पुत्र शिलादित्यका नाम पाया जाता है। इस अभावका कारण भी वातापिके चौलुक्योंके लेखमें नहीं मिलता। वर्तमान लेखसे उक्त उलझन मिट जाती है क्योंकि इसमें जयसिंहके सम्बन्धमें निम्न वाक्य है :. "ज्यायसा भ्रात्रा समभिवर्धितविभूतिः" पाया जाता है । इसका भाव यह है कि विक्रमने जयसिंहको लाट देश दिया था। और जयसिंह लाट प्रदेशमें चौलुक्य वंशका राज्य संस्थापक हुआ।
पर वलसाड़से प्राप्त गुजरातके चौलुक्य मंगलराजके ताम्रपत्रामें वंशावली निम्न प्रकार से दी गई है
कीर्तिवर्मा पुलकेशी वल्लभ
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सत्याश्रय विक्रमादित्य
धराश्रय जयसिंह वर्मा
विजयादित्य युद्धमल जयाश्रय मंगलराज
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