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चौलुक्य चंद्रिका] ,
अब विचारना है कि जब शक ६७६ में जयसिंहको अपने पितासे कुन्डी प्रदेशकी जागीर' मिली थी तो उक्त प्रदेशको सोमेश्वर द्वितीयने शक ६६० में गर्द.पर वठने पश्चात उससे (जयसिंहसे) कुन्डी प्रदेश छीन लिया था। यदि उसने कुन्डी प्रदेश छीना नहीं थातो कुन्डी के स्तु क्यों कर उसके सामन्त हुए। इस प्रश्नका उत्तर सोमेश्वर और जयसिंहके परस्पर संबंध दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है । हमारे पाठकों को ज्ञात है कि सोमेश्वर गद्दीपर बैठतेही जयसिंहको कुछ प्रदेश शक ६६० में तथा अब उसने उसका साथ - बिक्रमके विश्वासघात करने पर भी - नहीं छोडा और शत्रुओके हाथसे उसकी रक्षाकी थी तो कुछ और प्रदेश दिया था। अन्ततोगत्वा शक ६६२ में पुनः उसने युद्धमें विजयी होनेपर अन्य प्रदेश दिया था। जयसिंहके लेखोंसे सोमेश्वरका व्यवहार अत्यन्त सौहार्य पूर्ण प्रकट होता है। जयसिंह सदा सोमेश्वरका दाहिना हाथ था । ऐसी दशामें सोमेश्वर जयसिंहकी जागीर छीन लेवे यह समझमें नहीं आता । यदि सोमेश्वर जयसिंहकी जागीर छोन लेता तो उन दोनोमें सौहार्य नहीं रहता शत्रुता हो जाती। जयसिंहसे शत्रुता करना सोमेश्वरके बुतेकी बा नहीं थी। क्योंकि वह उसका' रक्षा कवच था। अतः कथित लेखमें जो सुगंधावतीके रछों को सोमेश्वरका सामन्त कहा है उसका केवल मात्र तात्पर्य यह है कि उसे चौलुक्य राज सिंहासनका भोक्ता होने के कारण अधिपति . रूपसे स्वीकार किया है। क्योंकि जयसिंह यद्यपि महाराजाधिराज पदवी प्राप्त किये था तथापि स्वतंत्र नहीं वरण अपने ज्येष्ट बन्धु सोमेश्वरके आधीन था। क्योंकि उसने अपने शक ६६३ और ६६५ के लेखों में सोमेश्वरको अधिराजा और चौलुक्य साम्राज्यका भोक्ता स्वीकार किया है।
उधृत विवरण से स्पट है कि सोमेश्वर द्वितीय के राज्य काल में जयसिंहके अविकार , से कुन्डी प्रदेश नहीं निकला था। अब विचारना है कि शक १००४ में कुन्डी के रट्रों को जो विक्रमका सामन्त कहा है तो क्या विक्रमने उस समय जयसिंहसे कुन्डी प्रदेश छोन लिया था। हमारे पाठको को ज्ञात है कि जब विक्रम अपने बडेभाई सोमे वरको गद्दी से उतार शक ९६८ में स्वयं गद्दीपर बैठा तो उनने जयसिंहको अनेक प्रान्त दिया ! यहां तक कि उसे साम्राज्यका भावी युवाज स्वीकार कर युवराज प.बंधकी जागीर पट्टरकाल भी दिया और साथहीं चौलुक्य साम्रज्यका हृदय स्थान वनबापी प्रदेश जो स्वयं उसे अपने पितासे जागीरमें मिली थी और जिसे सोमेश्वर गदीपर बैठाते समय स्वीकार किया था। उस प्रदेशको भी जयसिंहको दिया इतनाह। नहीं हम देखते हैं कि जयसिंह के शक १००३-१००४ के लेखों में उसे "विक्रमाभग्ण" विक्रनका रक्षक और 'अन्नन अङ्कार' अपने भाईका सिंह तथा 'चौलुक्य भरण' और 'चुडामणी' . विरुद धारण कर विक्रमके शत्रों का नाश करने वाला लिखा है । ऐसी दशामें विक्रम क्यों कर उससे उसकी जागीर छीन असंतुष्ट कर सकता है अतः कुन्डोके रट्रो को अपने लिये विक्रम . का सामन्त कहनेका केवत मात्र अभिप्राय यह है कि उसे अधिराजा रूपमें स्वीकार किया है। जयसिंहने मी विक्रमको प्राता अधिराज अपने कथित लेवों में रोकार किया है।
__ अन्ततोगत् । हम शक १००६ में रठों को विक्रम के पुत्र जयकर्ण का सामन्त रुपमें पाते हैं। इससे स्पष्ट है कि इस समय जयसिंहका अधिकार कुन्डी प्रदेशसे जाता रहा है क्यों -
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