Book Title: Chaulukya Chandrika
Author(s): Vidyanandswami Shreevastavya
Publisher: Vidyanandswami Shreevastavya

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Page 242
________________ चौलुक्य केंद्रिका) विषय के अन्तर्गत स्वयं राज्यधानी यातापिपुरी थी। हाँ पट्टडकाल किशुवलाल प्रदर में १२ से १२ पर्यन्त प्रामोंका होना पाया जाता है । और प्रायः सभी ग्राम पट्टडकालके मन्दिर आदि में लगे हुए होतेथे अतः आर्थिक दृष्टि से किशुवलाल विषय कुछमी महत्व नहीं रखता था। परन्तु राजनैतिक रष्टि से इसके अधिकारीके लिये समस्त चौलुक्य साम्राज्यके समान महत्व था। कि गुव ताल पट्टडकाल विषय और युवराज यह दोनों को एकत्रित करतेही युवराज पदक अा दर्पणा स्पष्ट हो जाता है एवं इन दोनों का विक्रमका राज्यरोहन समय जयसिंह को देना सर रुपेण प्रकट करता है कि उसने जयसिंह को अपने बाद चौलुक्य समाजका स्वामो मोकार किया था। अब यदि कि गुगल.ल विषयको जयसिंहके अधिकारसे हठानेका पगल किया जाय तो वह पान उभात्री अधिकारले वंचित करने समान है। जयसिंहका किशुवलाल प्रोससे वंचित होने की आशंकासे विक्षुब्ध होना अथवा हठाये जाने पर मरने मारनेको खड़ा हो जाना स्वभाविक है। जयसिंह प्रचण्ड योद्धा था। उसने अपने शरीरका रक्त वहा विक्रमको गती और बैठा के शुबलाल प्रदेशके साथ युवराज पदको प्राप्त किया था एवं चौंलुक्य राष्ट्र के वाह बांछण को अपने पूर्वजों के समान रामेश्वरले .कर मध्य प्रदेशके जबलपुर पर्यन्त और परिमा झुजराथ के लाट प्रदेश पर्यन्त फहराया था। यदि कहा जाय कि जयसिंहने नर्मदाके दक्षिण तसे रामेश्वर पर्यन्त भूभागको पुनः चौलुक्य साम्राज्यके अधिकार लाकरे पुलकेशी प्रथम और द्वितीय के समान उसे गौरवपर पहुचाया था तो अत्युक्ति न होगी। । पुनश्च जयसिंहके हाथ सेना रहित नहीं हुए थे । उसकी नसोंके एक ठंडे नाही पोसे जो वह कायरोंके समान अधिकार पर हस्ताक्षेप होते देख.हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता। हम कह सकते हैं कि किक्रमादित्यने जर्यासहके साथ प्रथम छेडलाइ प्रारंभ किया था। और छेडछाडका श्री गणेश उसके संकेतसे उसके पुत्र जयकर्णने किया। एवं अनात छेडकार केशवराणा प्रदेश पर हस्ताक्षेप था । अथवा संभव है कि जयकर्णने अपने अधिकारकी परिधिका स्पष्ट परिया नहीं होनेसे केशुवल.ल प्रदेशको अपने अधिकार भुक्त मान हस्ताक्षेप किया हो । अथवा यासी संभव है कि उसने जयसिहका भावी युवराज स्वीकृत होना अपने न्यायोचित (विक्रमका जेष्ठ पुत्र होनेके कारण) अधिकार (भावी युवराज पद) का अपहरण मान लिया ही और अपने सिना रजा होने तथा अपने नये उमंगके बल छेडछाड किया हो। अब यदि हम अयासह अधिकारों (केशवलाल अथवा किसी अन्य विषय और युवराज पद) पर विक्रम के हस्ताक्षर परिजन. पा जायतो क्किम और जयसिंह के विप्रहका यथार्य कारण ही सात होने के साथ बिल्हणका भंडा फोर होते हुए युद्धका दायित्व विक्रमके गले चला जायेगा। विक्रमादित्यको जयकर्ण और सोमेश्वर नामक दो पुत्र थे। इनमें जयकर्णका उल्लेख रु.१००६ के लेखमें है। कथित शक १००६ प्रभव संवत्सरका लेख कौनुर नामक स्थानसे प्राप्त हुना है। कोनुर आमका प्राचीन नाम कोन्डनुरु है। इसका उल्लेख तात्र शासनों और शिक्षा प्रशस्तियों में कोटवार और कुन्डी नामसे किया गया है। कौमुर मालपमा नाम HAN Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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