Book Title: Chaulukya Chandrika
Author(s): Vidyanandswami Shreevastavya
Publisher: Vidyanandswami Shreevastavya

View full book text
Previous | Next

Page 183
________________ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड हुआ था। क्योंकि उस वर्ष उसको कोगली आदि प्रदेशोकी जागीर मिल चुकी थी। हां इसके अतिरिक्त यदि हम थोडी देरके लिये यहभी मान लेवें कि जयसिंहका जन्म शक ६६९ में ही हुआ था और जन्मके पश्चात ही उसे जागीर दे दी गई थी। क्योंकि ऐसा प्रायः देखनेमें भी आता है कि राजा लोग भावी विग्रह से बचने के बिचारसे अपने प्रत्येक पुत्रके जन्म पश्चात उसे जागीर आदि दे कर दृढ प्रबंध कर देते हैं । एवं जब तक वह अल्प वयस्क रहता है तब तक उसकी जागीर का प्रबंध उसके नमिसे कोई कर्मचारी करता है। इस प्रकार के दृष्टांत का अभाव भी नहीं है। आहवमल्ल के द्वितीय पुत्र विक्रम की अल्पवयस्कता सयय उसकी जागीर वनवासी का प्रबंध उसकी माता करती थी। चाहे हम विल्हण के कथनको अबकाश देने के लिये पूर्व कथित रूपसे मान लेवें चाहे उसे अधिकांशमे अन्यथा होने ( अर्थात विक्रमादित्य और सोमेश्वर का अपने पिता आहवमल्ल के राज्यारोहन समय से पूर्व जन्म न होंने प्रभृतिकथन ) के कारण उसे त्याग देवे तोंभी हमे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि शक ६६८ वाले युध समय जयसिंह युध्धमें जाने योग्य नहीं था। वरना उसके समान वीर प्रकृती बालक यदि उसकी आयु युध्धमे जानेकी आज्ञा देती तो कदापि राज्य महल में क्रिडा करने के लिये पिता और भ्राता को रणक्षेत्र में जाता देखकर भी पीछे न ठहरता। अतः हम निशंक होकर कह सकते हैं कि इस शासन पत्र के लिखे जाते समय जयसिंह अल्प वयस्क बालक था और उसे कोगली पंच शत और अन्यान्य प्रदेशोकी जागीर मील चुकी थी । परन्तु हमारी इस धारणा का मूलोच्छेद प्रस्तुत प्रशस्ती का वाक्य अमोघ वाक्यं करता है। क्योंकि अमोध वाक्यं का अर्थ है । जिसका कथन कालत्रयमें अन्यथा न हो, जो अपनी बातों का धनी अथवा पूरा करनेवाला हो। हमारी समझमें ऐसे वाक्य का प्रयोग अल्प वयस्क अबोध बालक के लिये नही हो सकता। अतः कहना पडेगा कि जयसिंह प्रशस्ति लिखे जाते समय अल्प वयस्क नही वरण पूर्ण वयस्क था । और अपनी सत्य प्रियता, वचन बध्धता तथा प्रतिपालनता आदि गुणों के कारण ख्याति प्राप्त कर चुका था। किन्तु इस भावना का विमर्दक उसका शक ६६८ के युध्ध में सामिल न होना है। हमारी समझमें युध्धमें सामिल न होना किसीका किसी युध्ध समय न तो उसके अस्तीत्व का विमर्दक हो सकता है और न उसकी अल्प वयस्कता सिद्ध कर सकता है। क्योंकि शक ६६८ और ६८८ वाले युध्धो में जयसिंह के ज्येष्ठ भ्राता सोमेश्वर का हम उल्लेख नहीं पाते हैं । परंतु वह उस समय जिता जागता और अनेक प्रदेशो का शासन करता था। पुनश्च प्रशस्ति कथित वाक्य "अमोघ वाक्यं"के आगे (कांचीपुर आदि) वाक्य है । यदि दुर्भाग्यसे अमोघ वाक्यं कांचीपुर और त्रयलोकमल आदि के मध्य कुछ अक्षर नष्ट न हुए होते तो स्पष्ट रूपसे ज्ञात हो जाता कि कांचीपुर के साथ जयसिंहका क्या संबंध था । परन्तु श्रमोंध वाक्यं कांचीपुर और त्रयलोकमल्ल ननिनोलम्ब के मध्यवर्ती प्रशस्ति के टुटे हुए अंश को दृष्टि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296