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[चौलुक्य चंद्रिका अब रहा द्वितीय विपत्ति के सबंधका साजमस्य संमेलन। इस संबंधमे हम बिल्हण के कथनको अस्वीकार करते हैं। क्योंकि बिल्हणने अपने आश्रयदाता विक्रमादित्यके चरित्रको निर्दोष
और सोमेश्वरके चरित्रको दोषपूर्ण चित्रित किया है। बिल्हण के कथन और कांचीपति वीर राजेन्द्र चोलके लेखको समानान्तर पर रख तुलना करतेही बिल्हणकी पोल खुल जाती है क्योंकि उसने विक्रमदित्यके युध्ध समय अपने जातीय शत्रुसे मिल जानेका उल्लेख नहीं किया है। अपने बड़े भाई
और राजाका साथ युद्ध समय छोड शत्रुसे मिल जाना यदि निर्दोष और प्रशंसनीय चरित्र है तो निर्दोष चरित्रको शब्द सागर और साहित्य क्षेत्र से निकाल बहार करना पडेगा ।
पुनश्च हम बिल्हण के कथनको निम्न कारणोंसे भी नहीं मान सकते। वीर राजेन्द्र चोलकी प्रशस्ति कथित युद्ध के पश्चात भाविनी प्रस्तुत प्रशस्ति और इससे दो वर्ष पश्चात वाली हुले गुण्डी सिद्धेश्वर प्रशस्ति जयसिंहको स्पष्ट रूपसे सोमेश्वर के आधिपत्य को स्वीकार करनेवाला बताती है।
___ अतः हम अन्तमें निशंक हो प्रस्तुत प्रशस्ति कथित जयसिंहका गोवुन्द शिवीरके बाहर निवास करने प्रभृति से यही परिणाम निकालते हैं कि विक्रमादित्य जब युद्ध क्षेत्र से निकल कर शत्रु से जा मिलाना और सोमेश्वर को भागना पडा उस समय जयसिंह अपने स्थान पर डटा रहा और शत्रुको प्रचुर लाभ नहीं उठाने दिया ।
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