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चौलुक्य चंद्रिका ] वातापि पति जयसिंह जगदकमल्लका पौत्र और आहवमल्ल त्रयलोक्यमल्लका कनिष्ठ पुत्र एवं सोमेश्वर भुवनमल और विक्रमादित्य त्रिभुवनमल्लका कनिष्ठ भ्राता घोषित करें तो असंगत न होगा क्योंकि विजयसिंहके पिताका पूर्ण परिचय प्राप्त करने के पश्चात् अधिकांशतः पूर्व अवतरित प्रश्नोंका एक प्रकार से समाधान हो चुका तथापि हम अभी ऐसा करनेमें असमर्थ है । हमारी इस असमर्थता का कारण यह है कि अनेक महत्व पूर्ण विषयोंका समाधान नहीं हुआ है । वनवासी युवराज विरुदका परिचय नहीं मिला । परिचय नहीं मीलने के साथ ही इस अवतरण से औरमी गुत्थी उलझी गई है क्योंकि वनवासी प्रदेशको जयसिंह के पिता आहवमल्लने प्रथम अपनी गंगवंशकी राणीको दिया था । जो अपने कदमवशी सामन्त द्वारा शासन करती थी । बादको उसके पुत्र विक्रमादित्यको दिया था।
इस प्रश्न के समाधान के लिये हमें सोमेश्वर विक्रमादित्य और जयसिंह के इतिहास का पर्यालोचन करना होगा। और अपने इस प्रयत्नमें हम सर्व प्रथम वीरनोलम्ब पल्लव परमनादि त्रयलोक्यमल्ल जयसिंह के पूर्व उधृत लेखों के प्रति अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित करेंगे । जयसिंहके शक ६६६ से १००३ भावी ७ लेखोंका हम पूर्व में अवतरण कर चुके हैं। उक्त लेखों में दो लेख जयसिंह के पिता पाहवमल्लके राज्यकालीन है जिनका उल्लेख उपर कर चुके हैं । अन्य दो लेख (शक ६६३ और ६६५) में जयसिंहने अधिराज रूपसे अपने बड़े भाई सोमेश्वर भुवनमल्लको स्वीकार किया है पुनश्च उन लेखों से जयसिंह सोमेश्वरका अनन्य प्रकट होता है।
परन्तु शक ००१ और १००३ वाले लेखा में जयसिंहको वनवासी प्रदेश का शासक और वनवासी युवराज के रुपमें पाते है। इतनाहीं नहीं जयसिंह अपने लेखों में विक्रमादित्य को अधिराज स्वीकार करता है। एवं उनमे जयसिह को विक्रमादित्यका रक्षक रुपमे पाते है। इन लेखा के विवेचन से सोमेश्वर को कल्याण राज्य सहासन से हठाये जाने और विक्रमादित्य के गदी पर बैठने तथा जयसिहके वनवासी प्रदेश तथा वनवासी युवराज विरुद प्राप्त करने पूर्ण रुपेण विवेचन कर चुके है । अतः यहां पर पुनः पीष्ट पेषण न कर पाठको से उक्त स्थान देखने की आग्रह कर आगे बढ़ते है। और जयसिह के हाथ से वनवासी आदि प्रदेशों के छिन जाने प्रभृतिका बिचार करते है।
__हमारे पाठकों को भलिभांति ज्ञात है कि शक १००३ वाले तुम्बर होसरु के लेखसे प्रगट होता है कि जयसिंहने वनवासी और सन्तालिग आदि प्रदेशोकी राज्यलक्ष्मीको अङ्कशायनी बनाया हुया और उसका सौर्य सूर्य मध्य गगनमें प्रखर रुपेण बिकसित हो रहा था। और उसने चेदी स्थानक और लाटके राजाओं को पराभूत किया था। एवं प्रस्तुत प्रशस्ति से स्पष्ट है कि विक्रम संवत ११४६ तदनुसार शक '०१४ के पूर्व उसके हाथ से वनवासी राज्यका अपहरण हो चुका था। अतः अब विचारना है कि इस शक १०.३-१००४ और १०१४ के मध्य कब तक वह वन. वासी का भोग करता था। अब यदि वनवामी प्रदेशपर जयसिंहके बाद राज्य करने वालेका परिचय
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