Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah
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7.6
शब्दार्थ-हे साधु ! तुं देह सुखनी इच्छा करे छे ? तो | तें पूर्वभवे दान अथवा तप कर्यु छ ? जो तें दान अथवा तप ममी की तो तुं आ भवमांशुं पामवानो छ ? अने सुख प्राप्त करवानी इच्छायी जे शुभाशुभ कर्म कयु छे ते आ भवमां तेनो मेलेन मान अयेलं छे. दृष्टांत कहे छे के, लोकमां कणबी लोक शुं वाव्या विना क्यारे पण धान्य पामे खरा ? माटे कोडाथी भक्षण करायेली शेरडीना सरखा देहने विषे वृथा मोह न कर. ॥ ११॥
यत्काले लघुभांडमंडितको भूत्वा परेषां गृहे, भिक्षार्थ भ्रमसे तदापि भवतो मानापमानौ नहि ॥ भिक्षो तापसत्तितः कदशनात्किं तप्स्यसेऽहर्निश, श्रेयोर्थ किल सह्यते मुनिवरैर्वाधा क्षुधाशुद्भवा ॥ १२ ॥
शब्दार्थ-जे अवसरे न्हानां पात्रोथी शुशोभित हायवालो थइ कोकोनां घरने विषे भिक्षाने माटे भमे छे त्यारे पण तने मान अपमान थतुं नथी, हे साधु ! तो पछी तापसत्तिने लीधे कुत्सित आहारथी रातदिवस शामाटे खेद करे छे ? कारण उसम मुनिओ कल्याणने माटे भुख आदिथी उत्पन्न थयेली बहु पीडाओने निथे सहन करे छे.
एकाकी विहरत्यनास्थितबलिवर्दी यथा स्वेच्छया, योषामध्यरतस्त्वमेवमपि भो त्यसवात्मयूथं यते ॥ तस्मिश्चेदमिलापता न भवतः किं भ्राम्यसि मत्यहम, मध्ये साधुजनस्य तिष्ठसि न किं कला सदाचास्तम् ॥१३॥
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