Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah
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पुद्धियी तेने दररोज वारंवार संभारीने रुदन करे छे. वली ते स्त्रीयो पतिनी उर्ध्वदेहिक क्रिया करोने पछी पोतपोताना काममा आकुलव्याकुल थइ छती केटलाक वर्षे तेनु नाम पण विसरो जाय छे. ॥१७॥
अन्येषां मरणं भवानगणयन् स्वस्यामरत्वं सदा, देहिश्चितयसींद्रियद्विपवशो भूत्वा परिभ्राम्यसि ॥ अद्य श्वःपुनरागमिष्यति यमो न ज्ञायते तत्त्वतः, तस्मादात्महितं कुरुत्वमचिराद्धर्म जिनेंद्रोदितम् ॥ १८ ॥
शब्दार्थ-हे देहधारो ! तुं बीजाओनां मरणने नहि गणकारतो छतो हमेशां पोतानां अमरपणानो विचार करे छे अने तेथीन तुं इंद्रियरूप हाथोओने वश थइ भटके छे; परंतु मृत्यु आजे आवशे अथवा काले आवशे ते तत्त्वथी जाणी शकातुं नथी, माटे तुं तरत पोताना हितकारक एवा जिनेश्वरे कहेला धर्मने आचरण कर.॥१८॥
देहे निर्ममता गुरौ विनयता नित्य श्रुताभ्यासता, चारित्रोज्वलता महोपशमता संसारनिर्वेदता ॥ अंतर्बाह्यपरिग्रहत्यजनता धर्मज्ञता साधुता, साधो साधुजनस्य लक्षणमिदं संसारविच्छेदनम् ॥ १९ ॥
शब्दार्थ-हे साधु ! शरीरने विषे निर्ममपणुं, गुरुने विषे विनपप', निरंतर शास्त्रने विषे अभ्यासपणुं, चारित्रनुं उज्वलपणु, महोटुं उपशमपणुं, संसारमा वैराग्यपणुं, अंतरना अने बाहना परि
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