Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah
View full book text ________________
ग्रहने त्यजवापणु, धर्मज्ञपणुं अने साधुपणुं, आ उपर कहेलु साधुजननुं लक्षण संसारनो नाश करनारुं छे. ॥ १९ ॥
लब्ध्वा मानुषजातिमुत्तमकुलं रूपं च नीरोगतां, बुद्धिं धीधनसेवनं सुचरणं श्रीमजिनेंद्रोदितम् ॥ लोभार्थं वसुपूर्णहेतुभिरलं स्तोकाय सौख्याय भो, देहिन् देहसुपोतक गुणभृतं भक्तुं किमिच्छास्ति ते ॥२०॥
शब्दार्थ-हे देहधारी ! मनुष्यजातिने, उत्तमकुलने, रूपने, नीरोगीपणाने, बुद्धिने, बुद्धिवंतनी सेवाने अने श्री जिनराजे कहेला चारित्रने पामीने लोभने अर्थे धनने एकठा करवाना कारणथी रहारे सयु. शुं थोडां सुखने माटे गुणथी पूर्ण एवा आ देहरूप उत्तम नावने भांगी नाखवानी त्हारी इच्छा छे ? ॥ २० ॥
वैतालाकृतिमर्द्धदग्धमृतकं दृष्ट्वा भवंतं यते, यासां नास्ति भयं त्वया सममहो जल्पति प्रत्युत्तरम् ।। राक्षस्यो भुवि नो भवंति वनिता मामागता भक्षित, मत्वैवं प्रपलायतां मृतिभयात् त्वं तत्र मा स्थाः क्षणम् ।।२१॥
शब्दार्थ-हे यति ! वैतालना सरखी आकृतिवाला अंने अर्ददग्ध थयेला शब सरखा तने जोइ जे स्त्रोयोने भय थत्तो नयी, तेज स्त्रीओ तमने उत्तर आपे छे. शुं ते स्त्रीयो पृथ्वीने विषे राक्षसीयो न कहेवाय ? अर्थात् कहेवाय. 'ते स्त्रीओ मने भक्षण करवा आवी छे.' एम मानी तुं मृत्युना भयथी नासी जा, त्या क्षणमात्र प्रण रहिश नहि. ॥ २१॥
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Loading... Page Navigation 1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100