Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah
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हे नाथ ! एसें एसें चमत्कार जगतमें तुमनें दिखाया तो क्या? मेरा दो नेत्रकुं खोलना आपकुं कठीन है ? १२२ .
हा नाथ ! हे तात ! हे स्वामिन् ! हे वामा कुलनन्दन ! हा अश्वसेन वंशदीपक ! प्रत्यक्ष दर्शन दीजीयें. १२३
माता पिता यदि पुत्रकों इष्ट वस्तु नहि देगा तब दुसरा कोन देवेंगा, अतएवं हे तात ! हे स्वामिन् ? मेरेकों नेत्र दीजीयें. ११४
इसी प्रकार बोलते हि मेरा नेत्रका पडल तोड डाल्या, और लोकोका जय जय शब्बके साथ त्रिजगत्पतिका दर्शन मेरेकुं हुवा.१२५
और जेसें बादल दूर होनेसें समस्त प्राणीगण सूर्यकुं देखता है एसें चक्षुः विषयक पदार्थोकुं में आगे देखने लगा. १२६
हे नाथ ! जगतमें लोहकुं सुवर्ण बनानेवाला सच्चेसच्चा आपज पार्थ (मणि) है और हे तात तात ! उसी कारणसें खरेखर (आपका) पार्श्वनाथ एसा नाम रक्खा है. १२७ - उसके पीछे आनन्दसें विकस्वर नेत्रवाला में पारणा करके नेत्रकुं देनेवाला अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकुं वारंवार देखने लगा. १२८
पीछे रात्रीमें सोनेके बाद स्वप्नमें आकर देवीनें मेरेकुं कहा, कि हे वत्स ! इधर छोटा मंदिर होनेसें तेरेकुं वडा करना चाहीयें.१२९
प्रातःकालमें उठकर वहांज श्रावकोकुं उपदेश देकर धन एकत्र कराकर मैंनें मंदिरकी शरुयात करवाइ. १३०
दुसरा संघको रवाने करकें थोडासा श्रावको के साथ में वहां रहा और एक वरसमें नया (नवीन) मंदिर तैयार करवाया. १३१
पीछे विक्रम सक्न १७१५ की सालमें चैत्र शुक्ल छठ रविवार
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