Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah
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४८ (मेघजल) का पान करनेकी इच्छासें वह लोक आचार्य महाराज का चरनकमलको वंदन करके बैठे. ६
उस वख्त आचार्य महाराजभी सातनय चतुर्भगीयुक्त पापहठादेनेवाली और अमृतसे भी मधुर धर्मदेशना देने लों. ७
वह मूरिजी महाराजकी मधुर देशना सुनकर में प्रतिबोध पाया. और बडा आनन्दसे मेंने उसी गुरुजीके पास दोक्षा (साधुपणा) लीनी. उस दीक्षा बक्त गुरुजीने मेरा नाम भावविजय एसा रक्खा .८
तत्पश्चात् गुरुके संग मरुस्थलमें (मारवाड देशमें ) विहार करते मूत्र, प्रकरण, व्याकरण, साहित्य, ग्रंथचरित्रादीका यथाशक्ति मेने अभ्यास कीया. ९
विद्याभ्यासादि गुणोसे संतुष्ट होकर गुरुजीने जोधपुर नगरम श्रीचतुर्विध संघके समक्ष मेरेको गणिपद दीया. १०
उस्केबाद आचार्यमहाराज पाटणका श्रीसंघको विनतीसें आबृराजकी यात्रा करके शिष्योके साथ गुजरातमें गये. ११ __ रास्तामें चलते गरमीकी ऋतु आगेसे मेरे दोनु नेत्रोमें रोग (बिमारी) होगया तबभी ज्युं त्युं करके अपने गुरुके साथ पाटण पहुंचा. १२
पाटणमें धनाढय श्रावकोए बहुत वैद्योसें अनेक औषधीयां द्वारा (द्रव्यानुसे) नाना प्रकारका इलाज कीया मगर तब भी मेरी दोनु आंख (नेत्र ) बंध हो गइ. १३
दीपकहीन घरकी तरह नेत्रहीन (अंधकारव्याप्त) मैंनै विज
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