Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah
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शब्दार्थ-जो के जे गृहस्थो पोताने मलेलं अन्न धर्मदान करवामां आपी शकता नथी, जेओ दरिद्रथी हणाया छता पण विषयाशक्तिने मूकता नथी अने जेओ जिनराजे कहेला चारित्रने धारण करी तेने विषे आदर करता नथी. ते सर्वेनो जन्म बकरीना कंठे रहेला स्तननी पेठे निष्फल गयो छे. ॥ १५॥
दुर्गंध नवभिर्वपुः प्रवहति द्वारैरिमै संततं, संदृष्ट्वापि हि यस्य चेतसि पुनर्निवेदता नास्ति चेत् ॥ तस्माद्यद्भुवि वस्तु किशमहो तत्कारणं कथ्यते, श्रीखंडादिभिरंगसस्कृतिरियं व्याख्याति दुर्गंधतां ॥१६॥
शब्दार्थ-आ शरीर नवद्वारोथी हमेशां दुर्गंधनेज वहन करेते शरीरने जोइने जे पुरुषना चित्तमां जो वैराग्य नथी थतो तो पछी आश्चर्य छे के, तेने पृथ्वी उपर बोजी कइ वस्तु वैराग्यनुं कारण कहेवाय ? आ प्रत्यक्ष श्रीखंड-चंदन विगेरेयी करेली अंगनी संस्कृति पण दुर्गधनेज प्रगट करे छे. ॥१६॥
शोचंति न मृतं कदापि वनिता यद्यस्ति गेहे धनं, तच्चेन्नास्ति रुदंति जीवनधिया स्मृत्वा पुनः प्रत्यहम् ॥ कृत्वा तद्दहनक्रियां निजनिजव्यापारचिंताकुलास्तन्नामापि च विस्मरंति कतिभिः संवसरैयोषितः ॥१७॥
शब्दार्थ-स्त्री जो घरने विषे धन होय तो मृत्यु पामेला पतिनो शोक करती नथी अने जो धन नथी होतुं तो आजीविकानी
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