Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah

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Page 36
________________ शब्दार्थ-हे मुनि! जेम गाडीमां जोडायेलो एक बलद पोतानी मरज़ी मुजब क्रीडा करे छे तेम तुं पण पोताना समूहने ( मुनिसमइने) त्यजी दइ स्त्रीयोना मध्यमां आसक्त थयो छतो क्रीडा करे छे. जो कदापि हारे ते स्त्रीयोनी इच्छा न होय तो तुं तेओना मध्ये निरंतर या माटे फरे छे अने सदाचार पालीने साधुओना समूहने विषे केम नयी रहेतो ? ॥ १३ ॥ क्रीतान्नं भवतो भवेत्कदशने रोषस्तदा श्लाध्यते, मिक्षायां यदवाप्यते यतिजनैस्तद्भूज्यते सादरात् ।। भिक्षो भाटकसबसन्निभतनोः पुष्टिं वृथा मा कृथाः, पूर्णे किं दिवसावधौ क्षणमपि स्थातुं यमो दास्यति ॥१४॥ शब्दार्थ-जो हारे खराब भोजनमां पण वेचाथी अन्न लावतुं प्रदतुं होय तो रोष करवो योग्य छे, परंतु मुनिजनोए भिक्षामांजे मन मेलवाय तेज आदरथो भोजन कराय छे, माटे हे भिक्षु ! भाडाना घर सरखा आ शरोरने तुं वृथा पोषण न कर. कारणके, ते शरीरनी अवधि पूर्ण यइ रहेशे त्यारे तेने यम क्षणमात्र पण तेमां रहेवा देशे नहि. ॥ १४ ॥ लब्धानं यदि धर्मदान विषये दातुं न यैः शक्यते, दारिदोपहतास्तथापि विषयाशक्ति न मुचंति ये ॥ धृत्वा ये चरण जिनेंद्रगदितं तस्मिन् सदा नादरास्वेषां जन्म निरर्थकं गतमजाकंठे स्तनाकारवत् ॥१५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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