Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah

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Page 34
________________ शब्दार्थ-तुं जे जे वस्तुनी इच्छा करे छे ते ते वस्तु ते शरीरने आपीने तेने पुष्ट बनावी दीधुं, तोपण हे जडबुद्धि ! ते शरीर त्हारी साये आववानुं नथी. वली शुं मित्रादि आववाना छे ? अर्यात् तेओ पण आववाना नथी. परंतु पुप्य अने पाप ए बने त्हारी पाछल आववाना छे, माटे तुं शरीरादिकने विषे जरा पण महा मोह न कर. ॥९॥ अष्टाविंशतिभेदमात्मनि पुरा संरोप्य साधौ वृत्तं, साक्षीकृत्य जिनान् गुरूनपि कियत्कालं त्वया पालितम् ॥ भक्त वाञ्च्छसि शीतवातविहतो भूत्वाधुना तद्वतं, दारिद्योपहः स्ववांतमशनं भुंक्त क्षुधातॊऽपि किम् ॥१०॥ शब्दार्य-हे साधु! ते श्री जिनेश्वरने तथा गुरुने साक्षी करी अट्ठाविश भेदवाला साधु व्रतने अंगीकार करीने केटलोक काल पाल्युं छे. वली हमणां ते तुं विषयरुप वायुथी हणायो छतो थइने तेने भांगवानी इछा करे छे. परंतु दारिद्यथी हणायेलो एवो पण भुख्यो माणस शुं पोताना वमन करेला पदार्यने खाय खरो? अर्थात् न खाय. ॥१०॥ सौख्यं वांच्छसि किं त्वया गतभवे दानं तपो वा कृतं, नो चेचं किमिहैवमेव लभसे लब्धं तदत्रागतम् ॥ घान्य किं लभते विनापि वपनं लोके कुटुंबीजनोदेहे कीटकक्षितेचसशे मोहं या मा कृथाः॥११॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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