Book Title: Chamatkari Savchuri Stotra Sangraha tatha Vankchuliya Sutra Saransh
Author(s): Kshantivijay
Publisher: Hirachand Kakalbhai Shah
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शब्दार्थ-आ शरीर रुधिर अने वीर्यथी उत्पन्न थयु छे. तेमज ते चरबी, हाडका अने स्नायुथी भरपुर छे. वली बहारना भागमां मांखीओनी पांखोना सरखी चामडीथी चारे तरफ ढंकायलं छे. जो आ वर्णन करवा प्रमाणे शरीर न होय तो ते शरीर कागडा अने नार विगेरे जीवोथी आश्चर्यकारी रीते भक्षण कराय छे, तेवा शरीरने जोइने पण तने ते शरीर उपर वैराग्य केम नयी थतो.
स्त्रीणां भावविलास विभ्रमगतिं दृष्ट्वानुरागं मनाक्, मागास्त्वं विषवृक्षपकफलवत्सुस्वादवंत्यस्तदा ॥ ईषत्सेवनमात्रतोऽपि मरणं पुंसां प्रयच्छंति भो, तस्मात् दृष्टिविषाहिवत्परिहर त्वं दूरतोऽमृत्यवे ॥८॥
शब्दार्थ-स्त्रीयोना शृंगारादि विलासनी विभ्रमवाली गतिने जोइ तुं जरा पण राग न कर. कारणके, ते फक्त जोवाने अवसरे विषवृक्षनां पाकेलां फलनी पेठे उत्तम स्वादवाली देखाय छे. परंतु हे मुनि ! ते स्त्री जरापण सेवन करवाथी माणसोने मृत्यु आपे छे, माटे ते स्त्रीयोने तुं हारा पोतानां जीवितने माडे दृष्टिविषसर्पनी पेठे दूरथी त्यजी दे. ॥ ८ ॥
यद्यद्धांच्छसि तत्तदेव वपुषे दत्तं सुपुष्ट त्वया, सार्द्ध नैति तयापि ते जडमते मित्रादयो यांति किम् ॥ पुण्यं पापमिति द्वयं च भवतः पृष्टेऽनुयायिष्यते, तस्मात्वं न कृया मनागपि महामोहं . शरीरादिषु ॥ ९ ॥
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