________________
बोलते चित्रे
अमात्य उत्तर देने के पूर्व काँप उठा । स्वेद बिन्दुएँ उसके सिर पर चमकने लगी ।
८६
प्रियदर्शी - महामात्य ! घबराओ नहीं, जो सत्य हो उसे प्रकट करो ।
हाँ महाराज ! बात तो यही है ।
प्रियदर्शी ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा - मरने के पश्चात मेरे सिर की भी यही स्थिति होने वाली है तो फिर जीते जी यदि यह सिर में श्रमरणों के चरणों में झुकाऊ तो उसमें मेरा कौनसा गौरव कम होने वाला है ? इसमें तुम्हें कौनसी बुराई मालूम हुई । जाति से भले ही वे किसी भी जाति में रहे हों, किन्तु वे श्रमण तो हैं ही न ! महामात्य के पास इसका कुछ भी उत्तर नहीं था ।
*x
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org