________________
६२
बोलते चित्र
कुमारपाल का नियम था। प्रतिक्रमण के बिना वह रह नहीं सकता था। उसने महावत पर दृष्टि डाली। - राजा के अन्तर्मानस को समझने वाले महावत से कुछ भी छिपा न रह सका। उस वृद्ध महावत की आंखों में
आंसू आ गये। उसने कहा-राजन् ! इस समय हम आपत्तियों की घड़ी में से गुजर रहे हैं। हमारे सैनिक अपने कर्तव्य को विस्मृत कर चुके हैं। किस ओर से हमारे उपर हमला हो कहा नहीं जा सकता । अतः मेरा निवेदन है कि धर्मक्रियाएंसमरांगण में नहीं किन्तु राजमहल में हो।
राजर्षि कुमारपाल ने कहा-महावत यह तो धर्मयुद्ध हैं । लघु से लघु जीव की रक्षा करना मेरा परम कर्तव्य है । मैंने मानवों के सामने तलवार उठाई है उसका मूल कारण अपराधी को यह बता देना है कि मैं कायर नहीं हूँ। जैन अन्याय के सामने घुटने नहीं टेकता। विजय और पराजय जीवन के दो पहलू हैं। मुझे विजय मैं प्रसन्नता नहीं, पराजय मैं खिन्नता नहीं। मैं समय पर अपना धार्मिक कृत्य अवश्य करूंगा। ___उसने हाथी पर बैठे हुए ही सांध्य प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण पूरा होने पर पुनः हाथ में भाला लिया और युद्ध करने लगा। उसे युद्ध में वीरतापूर्वक लड़ते देखकर प्रतिकूल बने हुए सैनिक भी अनुकूल हो गये । राजा आगे बढ़ा। कुमारपाल का भाला सीधा ही राजा पूरणराय की छातीपर लगा और वह पृथ्वी पर गिरपड़ा । पूररगराय ने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org