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चाँवल को गर्म करता हूँ
क्षितिमोहन बाबू की पत्नी बड़ी उग्र स्वभाव की थी और क्षितिबाबू शरद के चाँद की तरह शीतल थे । वे क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी मुस्कराते रहते थे ।
एक दिन किसी आवश्यक कार्य में व्यस्त रहने से सायं - काल कुछ विलम्ब से वे घर पर पहुँचे । उनकी पत्नी आग बबूला हो उठी । उनके आते ही गरजते हुए उसने कहातुम तो देश सेवा के पीछे पागल बन रहे हो । भोजन का समय बीत जाता है । भोजन ठंडा हो जाता है तथापि तुम्हें भान नहीं है ! लो अब ठण्डे चावल खाओ । यह कहकर उसने ठण्डे चावल की थाली सामने रख दी ।
क्षितिबाबू ने मुस्कराते हुए थाली हाथ में ली वे उसे पत्नी के सिर पर रखने लगे । पत्नी ने पूछा- यह क्या कर रहे हो ?
बाबू
ने उसी प्रकार हँसते हुए कहा- जरा भात गरम
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