Book Title: Bolte Chitra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

Previous | Next

Page 120
________________ तृष्णा १०१ उस वृद्ध ने कहा-इसमें छप्पन करोड़ के रत्न हैं। दूसरा बैल उसी तरह का था, पर उसमें रत्न अपूर्ण जड़े हुए थे। राजा सोचने लगा-मेरे खजाने में भी ऐसे बहुमूल्य रत्न नहीं हैं । ऐसे रत्नों का स्वामी होकर भी चन्दन की लकड़ियाँ चुनने के लिए यह आधी रात में श्रम करता है। उसी समय श्रेणिक को भगवान् महावीर के मंगलमय वचन स्मरण हो आये कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है । उसकी पूर्ति कभी सम्भव नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148