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करण
नामकरण स्थापनाकरण
नामं नामस्स व नामओ व करणं ति नामकरणं ति । ठवणा करणन्नासो करणागारो व जो जस्स ॥ ( विभा ३३०२ )
नाम ही नामकरण है अथवा किसी का प्रियंकर शुभंकर आदि नाम रखना नामकरण है । अक्ष आदि का न्यास अथवा जिस करण का जो आकार है, वह स्थापनाकरण है ।
द्रव्यकरण
aaणं तु दुविहं सन्नाकरणं च नो य सन्नाए । कडकरणमकरणं वेलूकरणं च सन्नाए || नोसन्ना करणं पुण पओगसा वीससा य बोद्धव्वं । साई अमणाईअं दुविहं पुण विस्साकरणं ॥ ( उनि १८४, १८५ )
द्रव्य करण के दो प्रकार हैं१. संज्ञाकरण - द्रव्य का निष्पादन अथवा द्रव्य की क्रिया को ही रूढ़ि से संज्ञाकरण कहा जाता है। इसके अनेक भेद हैं
कटकरण -कटनिर्वर्तक ओजार आदि का निर्माण । अर्थकरण - सिक्का बनाने के लिए अधिकरणी आदि का निर्माण | वेलूकरण - रूई की पूणी कातने के लिए वेणुशलाका का निर्माण ।
२. नोसंज्ञाकरण - क्रिया होने पर भी जिसकी करणसंज्ञा रूढ़ नहीं है, वह नोसंज्ञाकरण है । इसके दो भेद हैं
प्रयोगकरण और विस्रसाकरण । विस्रसा करण के दो प्रकार हैं- सादिकरण और अनादिकरण । धमाधम्मागासा एवं तिविहं भवे अणाईयं ।'''' ( उनि १८६ ) .....अन्नोन्नसमाहाणं जमिहं करणं न निव्वती ॥ अहव परपच्चयाओ संजोगाइ करणं नभाई । साइयमुवाओ पज्जायादेसओ वावि ॥ चक्खुसमचक्खुसं चिय साईअं रूविवीससाकरणं । अभाणुपभि बहुहा संघाभेयकयं ॥ ( विभा ३३०९ - ३३११ )
विसाकरण
अनादिविसाकरण के तीन प्रकार हैं-धर्मास्तिअधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ।
काय,
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इनकी परस्पर व्यवस्थित अनादिकालीन प्रदेशसंहति के अर्थ में यहां करण शब्द का प्रयोग हुआ है, क्रियात्मककरण के अर्थ में नहीं ।
अथवा उपचार से इनमें क्रियात्मक करण भी घटित होता है । जैसे - आकाश के साथ घट आदि का संयोग । यह सादिकरण है । पर्याय की अपेक्षा से भी इनमें सादिकरण होता है ।
रूपी अजीव द्रव्यों में सादि विस्रसाकरण दो प्रकार
का है
चाक्षुष - अभ्र,
-
प्रयोगकरण
भावकरण
परिणमन ।
इन्द्रधनुष आदि में होने वाला
अचाक्षुष --- परमाणु - स्कन्धों में होने वाला भेद और संघात ।
होइ ओगो जीवव्वावारो तेण जं विणिम्माणं । सज्जीवमजीवं वा पओगकरणं तयं बहुहा ||
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( विभा ३३१२ ) होता है,
जीव की प्रवृत्ति से द्रव्य का जो निर्माण वह प्रयोगकरण है । उसके दो भेद हैं
१. जीवप्रयोगकरण २. अजीवप्रयोगकरण क्षेत्रकरण
खित्तरस नत्थि करणं आगासं जं अकित्तिमो भावो । वंजणपरिआवन्नं तहावि पुण उच्छुक्ररणाई ॥ ( आवनि १०१७ )
क्षेत्र का करण नहीं होता क्योंकि आकाश अकृत्रिम - अकृतक है । किन्तु क्षेत्र के अभिव्यंजक पुद्गलों की अपेक्षा से क्षेत्रकरण होता है । जैसे—– इक्षुक्षेत्रकरण, शालीक्षेत्रकरण आदि । क्षेत्र के पर्यायों का अवस्थान्तर ही क्षेत्रकरण है ।
( द्र. शरीर ) (द्र. पुद्गल)
भावकरण
भावकरणं तु दुविहं जीवाजीवेसु होइ नायव्वं । ' जीवकरणं तु दुविहं सुयकरणं चेव नो य सुयकरणं ।' ( उनि २०१, २०३ ) भावकरण के दो प्रकार हैं- जीवभावकरण और attartarरण । अजीवभावकरण (द्र. पुद्गल )
जीवकरण के दो प्रकार हैं- श्रुतकरण और नोश्रुतकरण । श्रुतकरण (द्र. श्रुतज्ञान)
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