Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 744
________________ सामायिकसूत्र सामायिक मनुष्य तथा देशविरति सामायिक के प्रतिपत्ता मनुष्य और प्रशस्त-अप्रशस्त क्षेत्र तियंच-दोनों होते हैं। विणयवओ विय कयमंगलस्स तदविग्धपारगमणाय । १३. सामायिक के ग्राह्य और वर्जनोय नक्षत्र देज्ज सुकओवओगो खित्ताईसु सुपसत्थेसु ॥ मियसिर अद्दा पुस्से तिन्नि य पुवाई मूलमस्सेसा ।। उच्छवणे सालिवणे परुमसरे कुसुमिए व वणसंडे । हत्थो चित्ता य तहा दस विद्धि कराई नाणस्स ।। गंभीर साणुणाए पयाहिणजले जिणहरे वा ।। (विभा ३४०८) दिज्ज न उ भग्ग-ज्झामिय-मसाण-सुन्नामणुन्नगेहेसु । ज्ञानवृद्धिकारक इन दस नक्षत्रों में सामायिक ग्रहण छारंगारक्खयारामेझाईदव्वळेसु करना चाहिए (विभा ३४०३-३४०५) १. मृगशिर ६. पूर्वाषाढा जो विनय से सम्पन्न है, अप्रमत्त है, कृतमंगल है, उसे २ आर्द्रा ७. मूल अपने अनुष्ठान का निर्विघ्न पार पाने के लिए प्रशस्त क्षेत्र ३. पुष्य ८. अश्लेषा में श्रुत आदि सामायिक प्रदान करना चाहिए। ४. पूर्वाप्रोष्ठपदा ९. हस्त इक्षुवन, शालिवन, पद्मसर, कुसुमित वनखण्ड और ५. पूर्वाफाल्गुनी १०. चित्रा। ऐसा जिनमन्दिर जो गंभीर-द्राक्षा, चन्दनलता आदि से संझागयं रविगयं विड्डेरं सग्गहं विलंबं वा । आच्छादित हो सानुनाद-प्रतिध्वनित होने वाला हो राहहयं गहभिण्णं च वज्जए सत्त नक्खत्ते ।। तथा प्रदक्षिणजल वाला हो----जहां जल प्रदक्षिणा करता (विभा ३४०९) हुआ बहता हो-ये श्रुत आदि सामायिक देने के सामायिक ग्रहण में वर्जनीय सात नक्षत्र .. लिए प्रशस्त क्षेत्र हैं। १. संध्यागत ५. विलंबी भग्नभूमि-खण्डहर, दग्धभूमि, श्मशान, शून्यगृह, २. रविगत ६. राहुहत अमनोज्ञ गृह और क्षार, अंगार, अवस्कर, अमेध्य आदि ३. विड्डेर ७. ग्रहभिन्न । निकृष्ट द्रव्यों से युक्त स्थान-इन अप्रशस्त क्षेत्रों में ४. सग्रह सामायिक का आदान-प्रदान नहीं करना चाहिये। ग्राह्य और वर्जनीय तिथियां चाउद्दसि पण्णरसिं वज्जेज्जा अमि च नवमि च । १४.' छद्रिं च चउत्थि बारसिं च सेसासु देज्जाहि ॥ करेमि भंते ! सामाइयं-सव्वं सावज्जं जोगं पच्च (विभा ३४०७) क्खामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं-मणेणं वायाए चतुर्दशी, पूर्णिमा या अमावस्या, अष्टमी, नवमी, कारणं, न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणषष्ठी, चतुर्थी और द्वादशी-ये तिथियां सामायिक ग्रहण । जाणामि । तस्स भंते ! पडिस्कमामि निंदामि गरिहामि के लिए वर्जनीय हैं। शेष तिथियों-१,२,३,५,७,१०, अप्पाणं वोसिरामि। ___(आव १।२) ११,१३ में श्रुत की वाचना दी जा सकती है। भगवन् ! मैं सामायिक करता हूं। मैं जीवन-पर्यन्त ग्राह्य दिशाएं समस्त पापकारी प्रवृत्ति का, तीन करण-मन, वचन पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व दिज्जाहवा पडिच्छेज्जा। और काया से तथा तीन योग-करने, कराने और अनुजाए जिणादओ वा दिसाइ जिणचेइयाई वा ॥ मोदन करने का प्रत्याख्यान करता है (विभा ३४०६) भगवन ! अतीत में किए हए पाप का मैं प्रतिक्रमण सामायिक देने वाला या सामायिक ग्रहण करने करता है, आत्मसाक्षी से उसकी निन्दा करता हूं, वाला पूर्वाभिमुख य उत्तराभिमुख होना चाहिए अथवा आपकी साक्षी से उसकी गर्दा करता हैं और अपने वे दोनों उस दिशा के अभिमुख हों, जिस दिशा में जिन आपको सपाप प्रवृत्तियों से पृथक् करता हूं। - आदि विचरण कर रहे हों या जिनचैत्य हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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