Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 754
________________ सिद्ध होने से पूर्व की अवगाहना ७०९ सिद्ध जैसे एक तुम्बा, जिस पर मिट्टी के आठ लेप लगे एगा य होइ रयणी अद्वैव य अंगुलाइ साहीआ। हुए हैं, पानी में डूब जाता है। एक-एक लेप के हट जाने एसा खलु सिद्धाणं जहन्नओगाहणा भणिआ।। से निर्लेप बना हुआ तुम्बा जल-तल से ऊर्ध्वगति कर जल (आवनि ९७१-९७३) पर तैरने लगता है, वैसे ही आठ प्रकार के कर्मलेप से सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तेतीस धनुष्य मूक्त आत्मा की निःसंगता के कारण ऊध्र्वगति होती है। और धनष्य का तीसरा भाग (१ हाथ, अंगल), मध्यम वन्त से ट्टने पर एरंड की फली गति करती है तथा अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल तथा जघन्य अवगाहना अग्नि और धूम-इनकी स्वभाव से ही ऊर्ध्व गति होती एक हाथ आठ अंगुल की होती है। है । धनुष से छुटे हुए बाण और कुलालचक्र की पूर्वप्रयोग के कारण गति होती है। इसी प्रकार मुक्त आत्मा की १३. सिद्ध होने से पूर्व की अवगाहना अगुरुलघुत्व, पूर्वप्रयोग तथा स्वभाव के कारण ऊर्ध्व गति जेट्ठा उ पंचसयधणुस्स मज्झा य सत्तहत्थस्स। होती है। देहत्तिभागहीणा जहन्निया जा बिहत्थस्स ।। कि सिद्धालयपरओ न गई धम्मत्थिकायविरहाओ। कह मरुदेवीमाणं नाभीओ जेण किंचिद्रणा सा। सो गइउवग्गहकरो, लोगम्मि जमत्थि नालोए । तो किर पंचसय च्चिय अहवा संकोयओ सिद्धा॥ (विभा १८५०) सत्तूसिएसु सिद्धी जहन्नओ कहमिहं बिहत्थेसु । मुक्त जीव लोकान में रहते हैं। सिद्धालय से परे सो किर तित्थयरेसु सेसाणं सिझमाणाणं ।। अलोक में उनकी गति नहीं होती, क्योंकि अलोक में गति ते पुण होज्ज बिहत्था कुम्मापुत्तादओ जहन्नेणं । उपग्रहकारी धर्मास्तिकाय नहीं है। अन्ने संवट्रियसत्तहत्थसिद्धस्स हीण त्ति ।। १२. सिद्धों को अवगाहना बाहुल्लाओ सुत्तम्मि सत्त पंच य जहन्नमुक्कोसं । इहरा हीणब्भहियं होज्जंगुल-धणुपुहत्तेहिं ।। उस्सेहो जस्स जो होइ, भवम्मि चरिमम्मि उ । अच्छेरयाइं किंचि वि सामन्नसूए न देसि सव्वं । तिभागहीणा तत्तो य, सिद्धाणोगाहणा भवे ॥ होज्ज व अणिबद्धं चिय पंचसयाएसवयणं व ।। (उ ३६।६४) (विभा ३१६६-३१७१) अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊंचाई होती है, उससे त्रिभागहीन (एक तिहाई कम) अवगाहना सिद्ध सिद्ध होने वाले जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना पांच होने वाले जीव की होती है। सौ धनुष, मध्यम अवगाहना सात हाथ और जघन्य देहत्तिभागो सुसिरं तप्पूरणओ तिभागहीणो त्ति । अवगाहना दो हाथ होती है। देह के विभाग न्यून होने सो जोगनिरोहे च्चिय जाओ सिद्धो वि तदवत्थो।। के कारण सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना तीन सौ तैतीस (विभा ३१६३) धनुष एक हाथ आठ अगुल, मध्यम अवगाहना चार हाथ मुक्त होने वाला जीव अपने शरीर की अवगाहना का आठ अंगुल और जघन्य अवगाहना एक हाथ आठ अंगुन तीसरा भाग जो पोला होता है, उसे जीवप्रदेशों से परित होती है। कर देता है और तब सिद्ध अवस्था की अवगाहना एक सिद्धावस्था में मरुदेवी की तीन सौ तेतीस धनुष की तिहाई भाग कम हो जाती है-शेष दो भाग जितनी अवगाहना कैसे होगी ? नाभि कुलकर की अवमाहना अवगाहना रह जाती है । यह क्रिया काययोग-निरोध के पांच सौ पच्चीस धनुष थी और उतनी ही अवगाहना अन्तराल में ही निष्पन्न होती है । मरुदेवी की थी। इसका त्रिभाग न्यून करने पर सिद्धातिन्नि सया तित्तीसा धणुत्तिभागो अहोइ बोद्धव्वो। वस्था में मरुदेवी की अवगाहना साढे तीन सौ धनुष होनी एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिआ ॥ चाहिये । इसके समाधान में कहा गया है कि नाभि कुलचत्तारि अ रयणीओ रयणितिभागृणिआ य बोद्धव्वा । कर की अपेक्षा मरुदेवी की अवगाहना किंचित् न्यून थी। एसा खलू सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिआ॥ अतः पांच सौ धनूष माननी चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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