Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 765
________________ स्वरमंडल ७२० गीत के गुण कारी उसके आधार पर निर्मित भरतनाट्य, वैशाखिल आदि ग्रन्थों से करनी चाहिए। षड्ज ग्राम की मूर्च्छना सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा मंगी कोरव्वीया हरीय, रयणी य सारकंता य। छट्ठी य सारसी नाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा ।। (अनु ३०४) षड्ज ग्राम की सात मूर्च्छनाएं१. मंगी ५. सारकान्ता २. कौरवीया ६. सारसी ३. हरित् ७. शुद्ध षड्जा । ४. रजनी मध्यम ग्राम की मूर्छना मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा उत्तनमंदा रयणी, उत्तरा उत्तरायता । आसकंता य सोवीरा, अभिरु हवति सत्तमा ।। (अनु ३०५) मध्यम ग्राम की सात मूर्च्छनाएं१. उत्तरमंद्रा ५. अश्वकान्ता २. रजनी ६. सौवीरा ३. उत्तरा ७. अभिरुद्गता। ४. उत्तरायता गान्धार ग्राम की मूच्र्छना गंधारगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहानंदी य खुड्डिया पूरिमा य चउत्थी य सुद्धगंधारा । उत्तरगंधारा वि य, पंचमिया हवइ मुच्छा उ॥ सुठुत्तरमायामा, सा छट्ठी नियमसो उ नायव्वा । अह उत्तरायता कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा ॥ (अनु ३०३।१,२) गान्धार ग्राम की सात मूर्छनाएं१. नंदी ५. उत्तरगान्धारा २. क्षुद्रिका ६. सुष्ठतर आयामा ३. पूरिका ७. उत्तरायता कोटिमा। ४. शुद्धगान्धारा ७.स्वर को उत्पत्ति, गीत की योनि............ सत्त सरा नाभीओ, हवंति गीयं च रुण्णजोणीयं । पायसमा ऊसासा, तिण्णि य गीयस्स आगारा ।। आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मज्झयारंमि । अवसाणे य झवेंता तिणि वि गीयस्स आगारा॥ (अनु ३०७।२,३) सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। रुदन गीत की योनि हैं। जितने समय में किसी छन्द का एक चरण गाया जाता है उतना उसका उच्छवास काल (परिमाण काल) होता है और उसके आकार (आकृतियां, स्वरूप) तीन हैं। गीत का आरम्भ करते समय आदि में मृदु, आरोहण करते समय मध्य में तीव्र और अवरोहण करते समय अन्त में मन्द । ये गीत के तीन आकार हैं। गीत के दोष भीयं दुयमुप्पिच्छं, उत्तालं च कमसो मूणेयव्वं । काकस्सरमणुणासं, छद्दोसा होति गीयस्स ॥ (अनु ३०७।५) १. भीत-भयभीत होते हुए गाना। २. द्रुत---शीघ्रता से गाना। ३. उप्पिच्छ-श्वासयुक्त गाना। ४. उत्ताल-ताल से आगे बढ़कर या ताल के अनुसार न गाना। ५. काकस्वर-कौए की भांति कर्णकट स्वर से गाना। ६. अनुनास-नाक से गाना । गीत के गुण पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं च तहेव मविघटळं। महुरं समं सुललियं, अट्ठ गुणा होति गीयस्स ।। (अनु ३०७१६) गीत के आठ गुण हैं१. पूर्ण--स्वर में आरोह, अवरोह आदि से परिपूर्ण होना २. रक्त-गाए जाने वाले राग से परिष्कृत होना। ३. अलंकृत-विभिन्न स्वरों से सुशोभित होना। ४. व्यक्त-स्पष्ट स्वर वाला होना। ५. अविघुष्ट-नियत या नियमित स्वर युक्त होना । ६. मधुर-मधुर स्वर युक्त होना। ७. सम-ताल, वीणा आदि का अनुगमन करना। ८. सुललित-ललित, कोमल लययुक्त होना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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