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स्वाध्याय का महत्त्व
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हेतूपदेश
सके ?
. अर्थ का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षा है। इसके बारसविधम्मि वि तवे, सभितरबाहिरे कुसलदिठे। अभाव में अर्थ विस्मृत हो जाता हैं।
ण वि अस्थि ण वि य होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ॥ अणुप्पेहा णाम जो मण सा परियट्टेइ णो वायाए ।
(दअचू पृ २००) (दजिचू पृ २९) बारह प्रकार का तप दो भागों में विभक्त है-बाह्य अनुप्रेक्षा में मानसिक परावर्तन होता है, वाचिक तप और आभ्यंतर तप । स्वाध्याय आभ्यंतर तप का चौथा नहीं।
प्रकार है। स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप नहीं है। अनुप्रेक्षा के परिणाम (द्र. अनुप्रेक्षा) तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नूदिते विभाति रागगणः । धर्मकथा
तमसः कुतोऽस्ति शक्तिदिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ।।
(नन्दीहाव पृ ६२) धम्मकहाए णं निज्जरं जणयइ। धम्मकहाए णं
वह ज्ञान ज्ञान ही नहीं है, जिसके उदित होने पर पवयणं पभावेइ। पवयणपभावे णं जीवे आगमिसस्स
राग आदि निषेधात्मक भाव विद्यमान रहें। अंधकार में भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ।
(उ २९।२४)
वह शक्ति कहां है, जो वह सूर्य की किरणों के समक्ष ठहर धर्मकथा से जीव कर्मों को क्षीण करता है और प्रवचन की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना
कम्ममसंखेज्जभवं खवेइ अणसमयमेव आउत्तो। करने वाला जीव भविष्य में कल्याणकारी फल देने वाले
अन्नयरम्मिवि जोए सज्ज्झायमि य विसेसेणं ।। कर्मों का अर्जन करता है।
(उशाव प ५८४) धर्मकथा के प्रकार
(द्र. कथा) ध्यानयोग आदि किसी भी प्रकार की योगसाधना जोगं च समणधम्मम्मि जंजे अ लसो धुवं ।.. में सतत उपयुक्त साधक असंख्य भवों के संचित कर्मों को
जोगं मणोवयणकायमयं अणुप्पेहणसज्झायपडिलेह- क्षीण करता है। स्वाध्याय योग से विशेष कर्मनिर्जरा णादिसु पत्तेयं समुच्चयेण वा च सद्देण नियमेण भंगितसुते होती है । तिविधमवि।
(द ८।४२ अच पृ १९५) कसाया अग्गिणो वृत्ता, सूयसीलतवो जलं । - मुनि आलस्य-रहित हो श्रमणधर्म में योग का यथो- सुयधाराभिहया संता भिन्ना हुन डहति मे ।। चित प्रयोग करें।
(उ २३।५३) यहां अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय, प्रतिलेखना आदि श्रमण
कषायों को अग्नि कहा गया है। श्रत, शील और चर्या को श्रमणधर्म कहा गया है। अनुप्रेक्षाकाल में मन
तप-यह जल है । श्रुत की धारा से आहत किये जाने को, स्वाध्यायकाल में वचन को और प्रतिलेखनाकाल में
पर निस्तेज बनी हुई वे अग्नियां मुझ नहीं जलाती। काया को श्रमणधर्म में लगाना चाहिये तथा भंगप्रधान
(स्वाध्याय के पांच प्रकारों का अनुशीलन करने से (विकल्पप्रधान) श्रुत में तीनों योगों का प्रयोग करना
श्रुत की आराधना होती है। श्रुतआराधना से अज्ञान चाहिये । उसमें मन से चिंतन, वचन से उच्चारण और
क्षीण होता है । अज्ञान के कारण आग्रह और राग-द्वेष
बढ़ते हैं। इससे चित्त संक्लिष्ट रहता है। निरन्तर काया से लेखन -तीनों होते हैं ।
स्वाध्याय करते रहने से विशिष्ट तत्त्वों की उपलब्धि ४. स्वाध्याय का महत्त्व
होती है, तब सारे संक्लेश मिट जाते हैं।) जह जह सुंयमोगाहइ अइसयरसपसरसंजुयमपुवं । तह तह पल्हाइ मुणी णवणवसंवेगसद्धाए ।
___ हिंसा-प्राण-वियोजन । प्राणातिपात ।(द्र. अहिंसा)
(उशावृ प ५८६) हीयमान-अवधिज्ञान का एक भेद, जो उत्पत्ति मुनि जैसे-जैसे अपूर्व और अतिशयरसयक्त श्रत का काल से क्रमशः क्षीण होता जाता है। अवगाहन करता है, वैसे-वेसे उसे संवेग के नये-नये स्रोत
(द्र. अवधिज्ञान) उपलब्ध होते हैं, जिससे उसे अपूर्व आनन्द का अनुभव हेतूपदेश-इष्ट-प्रवृत्ति और अनिष्ट-निवृत्ति का होता है।
संज्ञान । संज्ञीश्रुत का एक भेद (द्र. श्रुतज्ञान)
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