Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 761
________________ स्थविरावलि ७१६ स्याद्वाद ११. बहुल १९. वाचक रेवतिनक्षत्र ये। प्रावनिक रूप में नियुक्त युगप्रधान आचार्य दूष्य१२. स्वाति २०. वाचक सिंह गणी शास्त्रार्थ के व्याख्यान में तथा पृष्टार्थ के कथन में १३. आर्यश्याम २१. आचार्य स्कन्दिल अत्यंत शांत, मृदु और समाधिवान् थे। इस विशिष्ट गुण १४. शांडिल्य २२. हिमवन्त के कारण वे शिष्यों की अनुवर्तना अत्यंत कुशलता १५. आर्य समुद्र २३. वाचक नागार्जुन से करते थे। इसी गुण से प्रभावित होकर अन्यान्य १६. आर्य मंगु २४. भूतदिन गणों के मुनि अपने-अपने आचार्य से अनुमति लेकर १७. आर्य नन्दिल २५. लोहित्य इनके पास अनुयोग श्रवण के लिए आते थे । १८. आर्य नागहस्ति २६. दूष्यगणि स्थानांग-अंगप्रविष्ट आगम । तीसरा अंग । नन्दी के कर्ता आचार्य देववाचक द्वारा इस स्थविरा (द्र. अंगप्रविष्ट) वलि में २६ आचार्यों की स्तुति की गई है और साथ ही स्थावर-वे जीव, जो गतिशील नहीं हैं । साथ कुछेक आचार्यों के विषय में विशेष विवरण भी दिया (द्र. जीवनिकाय) गया है। इन आचार्यों में सुधर्मा पहले हैं और दूष्यगणि अंतिम । इनकी कालावधि लगभग हजार वर्ष की है। स्याद्वाद-अनेकान्तात्मक वाक्यविन्यास । यह स्थविरावलि क्रमशः एक के पश्चात् एक होने "सरिसासरिसं सव्वं निच्चानिच्चाइरूवं च ॥ वाले आचार्यों की नहीं है। यह विशिष्ट श्रुतधर, युग (विभा १७९६) प्रधान ओर वाचकवंशीय आचार्यों की अवलिका है। ये सब पदार्थ सदृश-असदृश, नित्य-अनित्य आदि अनन्त आचार्य विभिन्न कालावधि में हए हैं । इनमें से कुछेक धर्मों से युक्त हैं। अनन्त धर्मात्मक वस्तु की प्रतिपादनआचार्यों से संबंधित विशेष विवरण इस प्रकार हैं- शैली का नाम है-स्याद्वाद । ० वाचकवंशीय आर्य नागहस्ती व्याकरण, गणित, अहवा सव्वं वत्थु पइक्खणं चिय सुहम्म ! धम्मेहिं । ज्योतिष, भंगरचना और कर्मप्रकृति की प्ररूपणा संभवइ वेइ केहि वि केहि वि तदवत्थमच्चंतं ।। में प्रधान थे। तं अप्पणो वि परिसं न पुव्वधम्मेहिं पच्छिमिल्लाणं । ० ब्रह्मद्वीपक शाखा में प्रवजित, वाचक पद को प्राप्त सयलस्स तिहुअणस्स च सरिसं सामण्णधम्मेहि ।। सिंह मुनि कालिक श्रुत अनुयोग के धारक थे । (विभा १७९४, १७९५) ० स्कन्दिलाचार्य का अनुयोग आज भी अर्धभरत क्षेत्र वस्तु प्रतिक्षण पूर्व पर्यायों के समान या असमान में प्रचलित है। पर्याय के रूप में उत्पन्न होती है, उत्तर पर्यायों के समान • हिमवन्त क्षमाश्रमण कालिक श्रुत अनुयोग तथा या असमान पर्याय के रूप में विनष्ट होती है और कुछ पूर्वो के धारक थे। पर्यायों की अपेक्षा ध्रुव रहती है। • वाचक नागार्जुनाचार्य ने उत्सर्ग श्रुत का समा पूर्वपर्याय और उत्तरपर्याय की अपेक्षा आत्मा भी चरण किया। सदृश नहीं है। ० नागार्जुन ऋषि के शिष्य श्री भूतदिन्न आचार्य अर्धभरत में युगप्रधान तथा नाइलकुलवंश को ___ सामान्य धर्मों की अपेक्षा समस्त पदार्थ–सारा प्रमुदित करने वाले थे। जगत् सदृश है। • श्री दूष्यगणि की वाणी प्रकृति से ही मधुर थी। ..."सत्तादयोऽणवेक्खा घडाईणं ।। उनकी व्याख्यानविधि श्रोतृवर्ग को शांति देने न खल्वापेक्षिकमेव वस्तूनां सत्त्वम्, किन्तु स्वविषयवाली थी। वे सैकड़ों उपसम्पन्न मुनियों से ज्ञानजननाद्यर्थक्रियाकारित्वमपि । ततश्च ह्रस्वदीर्घोनमस्कृत थे। भयान्यात्मविषयं चेज्ज्ञानं जनयन्ति, तदा सन्त्येव तानि । दृष्यगणि इस स्थविरावलि के अंतिम आचार्य हैं। ये कथं तेषामसिद्धिः?..."तस्मात् स्वतः सत्यामेव प्रदेशिन्यां भाषा, विभाषा और वार्तिक रूप अनुयोग में अत्यन्त पटु वस्तुतोऽनन्तधर्मात्मकत्वात् तत्तत्सहकारिसंनिधौ तत्तद्रूपा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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