Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 746
________________ सिद्ध के निक्षेप ७०१ सिद्ध करना । जो आठ प्रकार की बद्ध कर्मरजों को ध्यानाग्नि सिद्ध को नमस्कार करने से सब पापोंका नाश से दग्ध करता है, वह सिद्ध है। होता है और यह सभी मंगलों में दूसरा मंगल है। २. सिद्धों का स्वरूप (द्र. नमस्कार; मंगल) अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया ।" ४. सिद्ध के एकार्थक (उ ३६६६६) सिद्धत्ति अ बुद्धत्ति अपारगयत्ति अ परंपरगयत्ति । सिद्ध जीव अरूप, सघन (एक-दूसरे से सटे हुए) उम्मूक्ककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य॥ और ज्ञान-दर्शन में सतत उपयुक्त होते हैं। कम्मविवेगो असरीरयाय असरीरया अणाबाहा । (आवनि ९८७) होअणबाहनिमित्तं अवेयणमणाउलो निरुओ ।। सिद्ध के आठ एकार्थक हैंनीरुयत्ताए अयलो अयलत्ताए य सासओ होइ । सिद्ध-कृतकृत्य । सासयभावमुवगओ अव्वाबाहं सुहं लहइ ।। बुद्ध-सर्व ज्ञाता। (आवनि ७४७, ७४८) पारगत-संसार-समुद्र से पारगामी, तीर्ण । सिद्ध कर्ममुक्त होते हैं, अशरीरी होते हैं। कर्मविवेक परम्परागत-दर्शन, ज्ञान, चरण की क्रमबद्ध (कर्मक्षय) से अशरीरता, अशरीरता से अनाबाधा, अना साधना के द्वारा मुक्त होने वाले। बाधा से असंवेदन, असंवेदन से अनाकुलता, अनाकुलता से उन्मुक्त-कर्मकवच-सब कर्मों से मुक्त। अरुजता, अरुजता से अचलता, अचलता से शाश्वतता अजर- वय और बुढ़ापे से मुक्त । और शाश्वतता से अव्याबाध सुख प्राप्त होता है। इस अमर-मृत्यु से मुक्त। प्रकार इनमें परस्पर कारण-कार्य भाव है। असंग--सब क्लेशों से मुक्त । सोऽणवराहो व्व पुणो न बज्झए बंधकारणाभावा । ५. सिद्ध के निक्षेप जोगा य बंधहेऊ न य ते तस्सासरीरो त्ति । सिद्धो जो निप्फन्नो जेण गणेण स य चोहसविगप्पो। (विभा १८४०) नेओ नामाईओ ओयणसिद्धाइओ दव्वे । मुक्त जीव पुनः बद्ध नहीं होता, क्योंकि उसमें बन्ध के कम्मे सिप्पे य विज्जाए मंते जोगे य आगमे । कारणों का अभाव है । बन्ध का कारण है योग-प्रवृत्ति । अत्थजत्ताअभिप्पाए तवे कम्मक्खए इय ।। वह मुक्त जीव में नहीं होती, क्योंकि उनके शरीर नहीं (विभा ३०२७, ३०२८) होता। जो जिस गुण से निष्पन्न होता है तथा पुनः निष्पन्न .."सागारमणागारं लक्खणमेअंतु सिद्धाणं ।। होना नहीं पड़ता, वह उस गुण में सिद्ध कहलाता है। केवलनाणवउत्ता जाणंती सव्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु केवल दिट्टीहिणताहि ॥ सिद्ध के चौदह प्रकार हैं(आवनि ९७७. ९७६) १. नामसिद्ध-जिसका नाम सिद्ध हो। सिद्धों का लक्षण है-साकार उपयोग और अनाकार २. स्थापनासिद्ध - सिद्ध की मूर्ति या कलाकृति । उपयोग । वे केवलज्ञानोपयुक्त हो सब पदार्थों के गुण- ३ द्रव्यसिद्ध-ओदन आदि द्रव्य पक जाने पर उन्हें पर्यायों को जानते हैं और अनंत केवलदर्शन से उन्हें देखते सिद्ध हुआ कहा जाता है। हैं । वे ज्ञानोपयोग में मुक्त होते हैं इसलिए यहां पहले ज्ञान ४. कर्मसिद्ध -कर्म-भारवहन, कृषि, वाणिज्य आदि का उल्लेख हुआ है। प्रवत्तियों में दक्ष । मुनि गुरुतरभारवाही होने के सिद्धों के युगपत् दो उपयोग नहीं होते । (द्र. केवली) कारण कर्मसिद्ध होते हैं। कहा है३. सिद्ध मंगल 'झंति नाम भारा ते पुण वुझंति वीसमंतेहिं । सिद्धाण नमुक्कारो सव्वपावपणासणो । सीलभरो वोडवो जावज्जीवं अविस्सामो।' मंगलाणं च सव्वेसि बिइ होइ मंगलं ।। ५. शिल्पसिद्ध-जो आचार्य द्वारा शिक्षित अथवा किसी (आवनि ९९२) ग्रन्थ द्वारा गृहीत विशिष्ट कर्म है, वह शिल्प कहJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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