Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 748
________________ स्वयंबुद्धसिद्ध ७०३ सिद्ध ७. सिद्धों के प्रकार ३. तीर्थकरसिद्ध अणंतरसिसकेवलनाणं पण्णरसविहं पण्णत्तं, तं जहा- रिसभादयो तित्थ करा, ते जम्हा तित्थकरणामकम्मुतित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थयरसिद्धा दयभावे द्विता तित्थकरभावातो वा सिद्धा तम्हा ते अतित्थयरसिद्धा सयंबुद्धसिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा तित्थकरसिद्धा। (नन्दीच पृ २६) बुद्धबोहिय सिद्धा इथिलिंगसिद्धा पुरिसलिंगसिद्धा जिनके तीर्थंकर नामकर्म का उदय होता है और जो नपुंसकलिंगसिद्धा सलिंगसिद्धा अण्णलिंगसिद्धा तीर्थकर अवस्था में मुक्त होते हैं, वे ऋषभ आदि तीर्थकरगिहिलिंगसिद्धा एकसिद्धा अणेगसिद्धा। सिद्ध हैं। (नन्दी ३१) ४. अतीर्थंकरसिद्ध सिद्ध होने की पूर्व अवस्था के आधार पर अनंतर सिद्धकेवलज्ञान के पन्द्रह प्रकार हैं अतित्थकरा सामण्णकेवलिणो गोतमादि, तम्मि अतित्थकरभावे ट्रिता अतित्थकरभावातो वा सिद्धा १. तीर्थसिद्ध ९. पुरुषलिंगसिद्ध २. अतीर्थ सिद्ध अतित्थकरसिद्धा। १०. नपुंसकलिंगसिद्ध (नन्दीचू पृ २६) ३. तीथंकरसिद्ध ११. स्वलिंगसिद्ध ___ अतीर्थकर का अर्थ है सामान्य केवली, जैसे गौतम ४ अतीर्थंकरसिद्ध १२. अन्यलिंगसिद्ध आदि। जो सामान्यकेवली के रूप में मुक्त होते हैं, वे ५. स्वयंबुद्धसिद्ध १३. गृहलिंगसिद्ध अतीर्थंकरसिद्ध हैं। ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध १४. एकसिद्ध ५. स्वयंबुद्धसिद्ध ७. बुद्धबोधितसिद्ध १५. अनेकसिद्ध। स्वयमेव बुद्धा स्वयंबुद्धा, सतं अप्पणिज्ज वा जाइसर८. स्त्रीलिंगसिद्ध णादिकारणं पडुच्च बुद्धा सतंबुद्धा । स्फुटतरमुच्यते-- १. तीर्थसिद्ध बाह्यप्रत्ययमन्तरेण ये प्रतिबुद्धास्ते स्वयंबुद्धा। जे तित्थे सिद्धा ते तित्थसिद्धा, तित्थं च-चातुवण्णो (नन्दीचू पृ २६) समणसंघो। (नन्दीचू पृ २६) जो स्वयं ही बुद्ध होकर मुक्त होते हैं, वे स्वयंबुद्ध____ जो चातुर्वर्ण श्रमणसंघ में प्रवजित होकर मुक्त होते सिद्ध हैं। अथवा जिन्हें बाह्य निमित्त के बिना अपने हैं, वे तीर्थसिद्ध हैं। जातिस्मरण आदि के कारण बोधि प्राप्त होती है, वे २. अतीर्थसिद्ध स्वयंबुद्ध हैं। तीर्थस्याभावोऽतीथं तीर्थस्याभावश्चानुत्पादोऽपान्तराले बाह्यप्रत्ययमन्तरेण ये प्रतिबुद्धास्ते सयंबुद्धा । "सयंव्यवच्छेदो वा तस्मिन् ये सिद्धाः तेऽतीर्थसिद्धाः । तीर्थस्या बुद्धस्स बारसविहोऽवि उवहि भवति । पुव्वाधीतं से सुतं नुत्पादे सिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः। न हि मरुदेव्यादिसिद्धि भवति वा ण वा। जति से णत्थि तो लिगं नियमा गुरुगमनकाले तीर्थमुत्पन्नमासीत् । तीर्थस्य व्यवच्छेदश्चन्द्र संनिहे पडिबज्जति गच्छे य विहरति । अहवा पुव्वाधीतसुयप्रभस्वामिसुविधिस्वाम्यपान्तराले। तत्र ये जातिस्मरणा संभवो अत्थि तो से लिंगं देवता पयच्छति गुरुसंनिहे वा दिनाऽपवर्गमवाप्य सिद्धाः ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धाः। पडिवज्जति । जदि य एगविहारविहरणजोग्गो इच्छा य से (नन्दीमवृ प १३०) तो एगो चेव विहरति । अन्नहा गच्छे विहरति । एयम्मि अतीर्थ के दो अर्थ हैं-१. तीर्थ की अनुत्पत्ति । भावे ठिता सिद्धा। (आवचू १ पृ७६) २. दो तीर्थंकरों के अन्तराल काल में तीर्थ का विच्छेद। उस समय मुक्त होने वाले जीव अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। बाह्य निमित्त के बिना जो प्रतिबुद्ध होते हैं, वे मरुदेवी माता तीर्थ स्थापना से पहले ही सिद्धगति को स्वयंबुद्ध हैं। स्वयंबुद्ध के बारह प्रकार की उपधि होती प्राप्त हो गई। चन्द्रप्रभु और सुविधिनाथ के अन्तराल है। उनके पूर्व अधीत श्रुत होता भी है और नहीं भी काल में तीर्थ का विच्छेद हो गया। उस समय जाति- होता। यदि वे अनधीतश्रुत होते हैं तो नियमतः गुरु के स्मरण आदि के द्वारा संबुद्ध हो मुक्त होने वाले जीव पास लिंग ग्रहण करते हैं और गच्छ में रहते हैं। जो पूर्वअतीर्थसिद्ध कहलाये। अधीतश्रत होते हैं, उन्हें देवता लिंग प्रदान करते हैं अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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