Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 747
________________ सिद्ध ७०२ लाता है घट निर्माण, मूर्ति निर्माण आदि शिल्प हैं। सोपारक नगर का वर्द्धकी कोवकास यांत्रिक वस्तुओं के निर्माण में दक्ष था। उसने अपने यांत्रिक कबूतरों से राजा के कोष्ठागार से गंधशाली का अपहरण कर लिया था । वह शिल्पसिद्ध वर्द्धकी था । ६. विद्यासिद्ध-जो समस्त विद्याओं का चक्रवर्ती है। अथवा महापुरुष द्वारा प्रदत्त महाविद्या का ज्ञाता है वह विद्यासिद्ध है । आर्य खपुट विद्यासिद्ध आचार्य थे । उनका एक शिष्य भृगुकच्छ में जाकर बोद्ध बन गया। वह आकाशमार्ग से बाच पदार्थों से भरे भांड मंगाने लगा | आचार्य को ज्ञात हुआ । वे वहां गए और आकाशमार्ग से आते हुए खाद्य भांडों को बीच में ही नष्ट कर दिया। एक दिन बौद्ध भिक्षु आचार्य को अपने मंदिर में ले गए और बोले- बुद्ध के चरणों में वंदना करो । आचार्य खपुट मूर्ति को संबोधित कर बोले- शुद्धोदनपुत्र आओ मेरे चरणों में वंदन करो। मूर्ति से बुद्ध की प्रतिकृति निकली और आचार्य के चरणों में नत हो गई। द्वार पर स्थित स्तुप से कहा- तुम भी वंदना करो स्तूप आया, । वन्दना की मुद्रा में स्थित हुआ। आचार्य ने कहाउठो, वह आधा उठा। आचार्य ने कहा बस । आज भी वह स्तुप अर्द्धगत स्थिति में है। ७. मंत्र सिद्ध- जिसने सभी प्रकार के मंत्र अथवा एक महामंत्र हस्तगत कर लिया है, वह मंत्रसिद्ध है । ८. योगसिद्ध परम आश्चर्य पैदा करने वाले द्रव्यसंमिश्रणों का ज्ञाता वज्रस्वामी के मातुल आर्य। समित योगसिद्ध थे । वे नदी पर गए । नदी से मार्ग मांगते हुए उन्होंने नदी में यौगिकद्रव्य का प्रक्षेप किया। नदी के दोनों तट सिमट गए । ९. आगमसिद्ध समस्त श्रुत का पारगामी इसका ज्ञान इतना विशद होता है कि स्वयंभूरमण के मत्स्य आदि जो चेष्टाएं करते हैं, वे सारी ज्ञात हो जाती हैं। वह संख्यातीत भवों का कथन कर सकता है अथवा प्रश्नकर्ता जिस भव की बात जानना चाहता है, वह उसका कथन करने में सक्षम होता है। १०. अर्थसिद्ध राजगृहवासी 'मम्मण' सेठ ने धन संग्रह की तृष्णा से अभिभूत होकर रत्नमय द्वितीय वृषभ की पूर्ति की, जिसकी पूर्ति राजगृह के अधिपति महाराज - Jain Education International सिद्ध केवलज्ञान के प्रकार श्रेणिक भी नहीं कर सकते थे। मम्मण अर्थसिद्ध या । ११. यात्रासिद्ध स्थल, जल तथा आकाश मार्गों में यथेष्ट यात्रा करने में निपुण जो बारह बार साधुद्रिक यात्रा में अपना कार्य संपन्न कर सकुशल लौट आता है तथा अन्यान्य यात्री जिससे यात्रासिद्धि के लिए मंत्रणा करते हैं, वह यात्रासिद्ध है। तुंडिक सामुद्रिक व्यापारी था। सैकड़ों बार उसके जहाज समुद्र में टूटे, परन्तु वह हताश नहीं हुआ । उसने कहा- 'जो जल में नष्ट होता है, उसकी पुन प्राप्ति जल में ही होती है।' वह अपना सामुद्रिक व्यापार चलाता रहा। देवता ने उसके साहस से प्रसन्न होकर उसको प्रचुर धन दिया । देवता ने उसे वर मांगने के लिए कहा । तत्र वह वणिक् बोला - 'जो मेरा नाम लेकर समुद्र का अवगाहन करे वह सकुशल लौट आए।' देवता ने तथास्तु कहा। तुंडिक यात्रासिद्ध था। १२. अभिप्रायसिद्ध अभिप्राय अर्थात् बुद्धि जिसकी | बुद्धि विस्तारवती एक पद के आधार पर अनेक पदों को जानने वाली, सर्वथा निर्मल और सूक्ष्म होती है, वह बुद्धिसिद्ध है । जो औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि से संपन्न होता है, वह बुद्धिसिद्ध होता है। १३. तपः सिद्ध प्रहारी की भांति बाह्य और आभ्यन्तर तप में क्लान्त नहीं होने वाला । १४. कर्मक्षय सिद्ध समस्त कर्मों का क्षय करने वाला अर्थात् समस्त कर्मक्षीण कर सिद्ध होने वाला । (देखें आवनि९२७-९५३ हा १२७२-२९३) ६. सिद्धकेवलज्ञान के प्रकार शैलेश्यवस्थापयंग्तवत्तिसमय समासादितसिद्धत्वस्य तस्मिन्नेव समये यत् केवलज्ञानं तदनन्तरसिद्ध केवलज्ञानम् । ततो द्वितीयादिसमवेष्वनन्तामप्यनागताद्धां परम्परसिद्ध केवलज्ञानम् । सिद्धानामेवानन्तरभवगतोपाधिभेदेन पञ्चदशभेदभिन्नत्वात् । ( नन्दीहावु पृ ३५ ) सिद्धों का केवलज्ञान सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है। उसके दो भेद हैं १. अनंतर सिद्ध केवलज्ञान । २. परम्पर सिद्धकेवलज्ञान । (द. केवलज्ञान) शैलेश अवस्था के अनंतर सिद्धत्व प्राप्त होता है, उस क्षण का केवलज्ञान अनंतर सिद्धकेवलज्ञान है। सिद्धअवस्था से पूर्ववर्ती भवसंबंधी उपाधि के भेद से सिद्धों के पंद्रह प्रकार हैं। । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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