Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 736
________________ सामायिक के निरुक्त : उदाहरण सामायिक बाहर प्रतिमा में स्थित हो गया। पांचों पांडव उसे ३. कालकपृच्छा वन्दन करने गए । दुर्योधन भी वहां आया । जब उसे कालक प्रवजित हो गए। दत्त राजा बना। ज्ञात हुआ कि यह दमदत है, तब उसमें वैर का भाव उसने मुनि कालक से भविष्य पूछा। मुनि ने कहाजागा और देखते-देखते मुनि के चारों ओर पत्थरों 'सातवें दिन तुम श्वकुंभी में पकार जाओगे।' इसका का जमाव हो गया। पत्थरों से मुनि ढक गए। क्या विश्वास? राजा के पूछने पर मूनि ने कहालौटते हुए युधिष्ठिर को ज्ञात हुआ कि यह दुर्योधन सातवें दिन तुम्हारे मुंह में मल का निक्षेप होगा। का दुष्कृत्य है। उन्होंने सारे पत्थरों को हटाया, राजा ने मुनि को कैद कर लिया। मुनि का अभ्यंगन किया और दुष्कृत्य के लिए क्षमा सातवें दिन राजा अश्वक्रीडा के लिए गया । लौटते याचना की। मुनि दमदंत का पांडवों और दुर्योधन समय उसने सोचा--आज मुनि को मार डालना है। ----दोनों के प्रति समभाव था। वह आगे बढ़ा । एक स्थान पर अश्व रुका । उस २. (क) महाराजा चन्द्रावतंसक अश्व ने पैर पटका । उस स्थान पर मल विसर्जित माघ का महिना । साकेत नगरी के राजा चन्द्रावतं- कर किसी ने उस पर पुष्प डाल दिए थे। घोड़े के सक ने प्रतिमा स्वीकार करते हुए यह प्रतिज्ञा की पैर से मल उछलकर राजा के मुंह में चला गया । कि जब तक वासगृह में दीपक जलता रहेगा तब तक राजा डरा। दंडिकों ने जान लिया कि राजा मुनि प्रतिमा में स्थित रहूंगा। पहला प्रहर बीत गया। को मारेगा। उन्होंने उसे पकड़ कर एक कुंभी में डाल दूसरे प्रहर में दासी ने सोचा कि स्वामी ध्यानस्थ दिया। उसी कुंभी में दो-चार कुत्ते भी डाल दिए। हैं । अंधेरा न हो जाए। उसने दीपक में तेल डाल कुंभी को अग्नि पर चढ़ाया। ताप लगा। कुत्ते दिया। चारों प्रहर वह दीपक जलता रहा। अत्यंत खंखार होकर राजा को काटने लगे। उसे खंड-खंड शीत के कारण राजा प्रातःकाल दिवंगत हो गया। कर मार डाला। कालक ने जैसा कहा वैसे ही उसने वेदना को समभाव से सहा । दासी पर कूपित हुआ । यह सम्यग्वाद है। नहीं हुआ। ४. चिलात (ख) मुनि मेतार्य राजगृह में धन नामक सार्थवाह रहता था। उसकी चांडाल मूनि मेतार्य भिक्षा के निमित्त एक स्वर्णकार दासी का नाम था चिलाता। दासी के पुत्र का नाम था के वहां गए । स्वर्णकार महाराज श्रेणिक के लिए चिलातक । सुंसुमा धन सार्थवाह की प्रिय पुत्री थी। स्वर्ण-यवों का निर्माण कर रहा था। मुनि को आए एक बार धन ने कुपित होकर दासीपुत्र चिलातक को देख वह उठा । भीतर गया। वह भिक्षा लेकर नहीं घर से निकाल दिया। वह वहां से गया और दस्युदल आया। मुनि वहां से चले गए। इतने में ही क्रौंच के साथ जुड़ गया । कालान्तर में वह दस्यु सेनापति पक्षी ने 'यव' निगल लिए। स्वर्णकार ने यवों को न बना और उसी धन सार्थवाह को लटने राजगह में देख, मुनि पर आशंका की। मुनि से पूछताछ की। आया । सारा धन बटोर कर जाते समय उसने मुनि मौन रहे । तब स्वर्णकार ने गीले चमड़े से उनके सुसुमा का भी अपहरण कर लिया। सेठ ने दलबल सिर को बांधा । ज्यों-ज्यों चमड़ा सूखता गया, मुनि के साथ पीछा किया। जब चोरपति चिलातक ने को असह्य वेदना होने लगी। आंखें बाहर आ गिरी। देखा कि वह सुसुमा को ले जाने में असमर्थ है, तब मुनि निष्प्राण होकर भूमि पर गिर पड़े। इतने में उसने सुसुमा का सिरच्छेद कर, धड़ को वहीं फेंक, ही किसी कारणवश क्रौंचपक्षी ने यवों को उगल केवल सिर को ले आगे बढ़ा । वह दिग्मूढ हो गया । डाला। लोगों ने स्वर्णकार को बुरा-भला कहा । एकांत में एक मुनि को ध्यानस्थ देखा। वन्दना कर मुनि मेतार्य को क्रौंच पक्षी द्वारा यव निगलने की धर्म पूछा । मुनि ने समासरूप में धर्म बताते हुए कहा बात ज्ञात थी, पर उन्होंने प्राणीदया से प्रेरित होकर -उपशम, विवेक, संवर । आवेग का उपशम करो, स्वप्राणों की बलि देना ही उचित समझा। ममत्व का विवेक करो-परित्याग करो और इंद्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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