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कार्मण शरीर
पांचवें वर्गफल के ३२ छेदनक और छट्ठे वर्गफल के ६४ छेदनक | इन दोनों का योग करने से ३२+६४= ९६ छेदनक होते हैं ।
प्रकारान्तर से एक के अंक को स्थापित कर उत्तरोतर उसे छियानवे बार दुगुना दुगुना करने पर जितनी राशि आती है वह छियानवे छेदनकदायी राशि कहलाती है ।
इस छियानवे छेदन कदायी राशि का प्रमाण उतना ही होगा जितना कि पांचवें वर्गफल और छट्टे वर्गफल का गुणा करने से आता है ।
४. वैक्रिय शरीर
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पुण
विविहा विट्टिगा वा किरिया विकिरिय तीए जं तमिह । नियमा विउब्वियं णारगदेवाण पयतीए ॥ ( अनुहावृ पृ८७ ) जो शरीर नाना रूपों का निर्माण करने में समर्थ होता है, वह वैक्रिय शरीर है । नारक और देव के वह स्वाभाविक होता है । मनुष्य और तिर्यंचों के यह लब्धिजन्य होता है । वायुकाय के भी वैक्रिय शरीर होता है ।
५. आहारक शरीर
विलिणा विसिद्धीय |
जं एत्थ आहरिज्जइ भणति आहारयं तं तु ॥ ( अनुहावृ पृ ८७ ) आह्रियते इत्याहारकं गृह्यत इत्यर्थः । कार्यपरिसमाप्तेश्च पुनर्मुच्यते याचितोपकरणवत् । कार्याण्यमूनि --
तानि च
पाणिदरिद्धिसंदरिसणत्थमत्थोवगाहणहेतुं वा । गमणं जिणपादमूलंमि ||
संसय वोच्छेयत्थं
( अनुचू पृ ६१ ) आहारकलब्धि के द्वारा निर्मित शरीर आहारक शरीर कहलाता है। श्रुतवकेली विशिष्ट प्रयोजन उत्पन्न होने पर इसका निर्माण करते हैं और कार्य संपन्न होने पर याचित उपकरण की तरह उसे छोड़ देते हैं ।
प्राणीदया, अर्हतों की ऋद्धि का दर्शन, नवीन अर्थ का अवग्रहण और संशय - अपनयन इन प्रयोजनों से आहारक शरीर अर्हत् की सन्निधि में जाता है ।
तथाविधप्रयोजने चतुर्दश पूर्वविदा आह्रियते – गृह्यत इत्याहारकम्, अथवा आह्रियन्ते गृह्यन्ते केवलिनः समीपे सूक्ष्मजीवादयः पदार्था अनेनेत्याहारकम् । (अनुमवृप १८१ )
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शरीर
चौदह पूर्वी विशिष्ट प्रयोजन उत्पन्न होने पर जिसका आहरण / ग्रहण करते हैं, वह आहारक शरीर है । अथवा जिस शरीर के होने पर केवली के समीप जाकर जीव आदि पदार्थों का सूक्ष्म विश्लेषण प्राप्त होता है, वह आहारक शरीर है ।
प्रकार
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..... आहारगसरीरा ''' दुविहा पण्णत्ता, तं जहाबल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं सिय अत्थि सिय नत्थि, जइ अत्थि जहण्णेणं एगो वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं । मुक्केल्लया जहा ओरालियसरी रस्स तहा भाणियव्वा । ( अनु ४५९ )
आहारक शरीर के दो प्रकार हैं- बद्ध और मुक्त | उनमें जो बद्ध हैं, वे कभी होते हैं और कभी नहीं होते । यदि होते हैं तो जघन्यतः एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्टतः दो हजार से नौ हजार तक होते हैं। मुक्त आहारक शरीर औदारिक शरीर को भांति प्रतिपादनीय है ।
तस्स अंतरं, जहणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा, तेण ण होंतिवि कयाइं । ( अनुचू पृ ६४ ) बद्ध आहारक शरीर का अंतर काल जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः छह महीने है । इसीलिए कहा गया है कि वह कभी होता है, कभी नहीं भी होता, निरंतर नहीं होता ।
६. तेजस शरीर
सव्वस्स उपहसिद्धं रसादिआहारपागजणणं वा । तेयगलद्धिनिमित्तं व तेयगं होति णायव्वं ॥ ( अनुचू पृ ६१ )
जो ऊष्मामय है, जिससे आहार का परिपाक होकर रस आदि निष्पन्न होते हैं और जो तेजोलब्धि का निमित्त है, वह तेजस शरीर है ।
७. कार्मण शरीर
कर्मणो विकारः कार्मणं, अष्टविधकर्मनिष्पन्नं सकलशरीर निबंधनं च । ( अनुहावृ पृ८७ ) अष्टविध कर्मसमुदाय निष्पन्नमौदारिकादिशरीरनिबन्धनं च भवान्तरानुयायि कर्मणो विकारः कर्मैव वा कार्मणम् । ( अनुमवृप १८१ )
कर्म का विकार कार्मण शरीर है। इसका निर्माण अष्टविध कर्मपुद्गलों से होता है । यह शेष सब शरीरों का मूल कारण है और एक भव से दूसरे भव में जीव के
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