Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 715
________________ समिति ६७० ईर्या समिति २. समिति के प्रकार ईर्या का आलम्बन है ज्ञान, दर्शन और चारित्र । पंचहिं समिईहिं--इरियासमिईए भासासमि ईए ईर्या का काल है-दिवस । एसणासमिईए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिईए उच्चार ईर्या का मार्ग है-उत्पथ का वर्जन । पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्रावणियासमिईए । ईर्या की यतना है(आव ४८) ० द्रव्य से -देखते हुए चलना। समिति के पांच प्रकार ० क्षेत्र से-युगमात्र भूमि को देखते हुए चलना। ० काल से-जब तक चले तब तक देखते हुए ईर्या समिति-गमनागमन संबंधी अहिंसा का चलना। विवेक । • भाव से-गमन में दत्तचित्त रहना । भाषा समिति--भाषा सम्बन्धी अहिंसा का विवेक । इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्मायं चेव पंचहा । एषणा समिति-आहार, वस्त्र आदि के ग्रहण और तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए॥ उपयोग संबंधी अहिंसा का विवेक । आदान समिति-दैनिक व्यवहार में आनेवाले (उ २४८) इन्द्रियों के विषयों और पांच प्रकार के स्वाध्याय का पदार्थों के व्यवहरण संबंधी अहिंसा का विवेक । वर्जन कर, ईर्या में तन्मय हो, उसे प्रमुख बना, उपयोगउत्सर्ग समिति-उत्सर्ग सम्बन्धी अहिंसा का पूर्वक चले। विवेक । ईर्यायां मूर्तिः - शरीरमाद् व्याप्रियमाणा यस्यासो ३. ईर्या समिति तन्मूर्तिः तथा तामेव पुरस्करोति-तत्रैवोपयुक्ततया ईरणमीर्या-गतिपरिणामः । प्राधान्येनाङ्गीकुरुत इति तत्पुरस्कारः । अनेन काय (उशाव प ५१४) मनसोस्तत्परतोक्ता, वचसो हि तत्र व्यापार एव न गतिपरिणाम --गमन में सम्यक प्रवत्त होना ईर्या- समस्ति । एवमुपयुक्तः सन्नीया रीयेत यतिः ।। समिति है। (उशावृप ५१६) जयं नाम उवउत्तो जुगंतरदिट्ठी दट्टण तसे पाणे जिसका शरीर ईर्या में ही व्याप्त होता है, वह उद्धट्टपाए रीएज्जा। (दजिच १६०) तन्मूर्ति है । जो उसी में उपयुक्त हो जाता है-ईर्या को संयमपूर्वक चलने का अर्थ है-ईर्यासमिति में साव- ही प्रधान बनाकर चलता है, वह तत्पुरस्कार है। धान हो युगप्रमाण भूमि को देखते हुए चलना, मार्ग में काया और मन का ईर्या में ही लगे रहना गमन चींटी आदि स प्राणी आ जाए तो पैर को ऊंचा उठाकर की उपयुक्तता है। उसमें वचन का व्यापार ही नहीं (अन्यत्र रखकर) चलना। होता । इस प्रकार मुनि उपयुक्त होकर गमन करे । ईर्या के आलम्बन आदि अविधि-गमन का निषेध आलंबणेण कालेण, मग्गेण जयणाइ य । ओवायं विसमं खाणं, विज्जलं परिवज्जए। चउकारणपरिसुद्धं, संजए इरिय रिए । संकमेण न गच्छेज्जा, विज्जमाणे परक्कमे ।। तत्थ आलंबणं नाणं, दंसणं चरणं तहा । पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए । काले य दिवसे वुत्ते, मग्गे उप्पहवज्जिए । हिंसेज्ज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ।। दवओ खेत्तओ चेव, कालओ भावओ तहा । (द ५११४,५) जयणा चउव्विहा वुत्ता, मुनि दूसरे मार्ग के होते हुए गड्ढे, उबड़-खाबड़ भूभाग, दब्वओ चक्खुसा पेहे, जूगमित्तं च खेत्तओ । कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल और पंकिल मार्ग कालओ जाव रीएज्जा, उवउत्ते य भावओ। को टाले तथा संक्रम (जल या गड्ढे को पार करने के (उ २४१४-७) लिए काष्ठ या पाषाणरचित पुल) के ऊपर से न जाये। संयमी मुनि आलम्बन, काल, मार्ग और यतना-इन वहां गिरने या लड़खड़ा जाने से वह संयमी त्रस चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या (गति) से चले। अथवा स्थावर जीवों की हिंसा करता है। गिरने पर क०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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