Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 721
________________ सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व एकान्त क्षणिकत्व, एकान्त नित्यत्व आदि मिथ्यात्व है जिससे जीव आदि के स्वरूप का अवबोध होने पर भी मतों का समूह सम्यक्त्व है यदि वह 'स्यात्' पद से युक्त किसी-किसी को ही उसकी सम्यक् प्रतिपत्ति होती है, है। परसिद्धांत स्वसिद्धांत का उपकारी होता है, इसलिए सबको नहीं। के लिए वह स्वसिद्धांत ही है क्योंकि परसिद्धात ३. सम्यक्त्व के पर्यायवाची की व्यावृत्ति से स्वसिद्धांत की सिद्धि होती है, उसके सम्मद्दिट्रि अमोहो सोही सम्भावदसणं बोही। विसंवादी निरूपण को देख अपने सिद्धांत में स्थिरता होती अविवज्जओ सुदिदित्ति एवमाई निरुत्ताई ।। (आवनि ८६१) हाथों का दृष्टांत सम्यक्त्व के सात पर्यायवाची हैं - जमणेगधम्मणो वत्थुणो तदंसे च सव्वपडिवत्ती। १. सम्यग्दृष्टि -अविपरीत प्रशस्त दृष्टि । अंधव्व गयावयवे तो मिच्छद्दिट्ठिणो वीसु ।। २. अमोह-- अवितथ आग्रह । जं पुण सम्मत्तपज्जायवत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं। ३. शोधि-मिथ्यात्व का अपनयन । सम्मत्तं चक्खुमओ सव्वगयावयवगहणे व्व । ४. सदभावदर्शन-जिनप्रवचन की उपलब्धि । (विभा २२६९,२२७०) ५. बोधि-परमार्थ का बोध । हाथी के एक-एक अवयव को सम्पूर्ण हाथी समझने ६. अविपर्यय-तत्त्व का निश्चय । वाले चक्षुहीन व्यक्तियों की भांति जो अनन्तधर्मात्मक ___७. सुदृष्टि-प्रशस्त दृष्टि । वस्तु के केवल एक धर्म में समस्त वस्तु की प्रतिपत्ति ४. सम्यक्त्व के प्रकार मानता है, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। सम्मत्तपरिग्गहियं सम्मसुयं, तं च पंचहा सम्म । हाथी के समस्त अवयवों के समुदाय को हाथी उवसमियं सासाणं खयसमजं वेययं खइयं ॥ समझने वाले चक्षष्मान की तरह वस्तु के समस्त (विभा ५२८) पर्यायों के समुदाय को पूर्णवस्तु मानने वाला सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व के पांच प्रकार हैंहोता है। १. औपशमिक एग जाणं सव्वं जाणइ सव्वं च जाणमेगं ति । २. सास्वादन इय सव्वमयं सव्वं सम्मदिटिस्स जं वत्थु ।। ३. क्षायोपशमिक (विभा ३२०) ४. वेदक एक वस्तु को जानने वाला सब वस्तुओं को जानता ५. क्षायिक । है और सब वस्तुओं को जानने वाला एक वस्तु को जानता है, क्योंकि सब वस्तुएं सर्वमय होती हैं। यद्यपि ५. औपशमिक सम्यक्त्व सम्यग्दष्टि व्यक्ति (अकेवली अवस्था में) सब नहीं खीणम्मि उइण्णम्मि य अण इज्जते य सेसमिच्छत्ते । जानता, पर वह इस पर श्रद्धा करता है कि 'सर्व अंतोमुहत्तमेत्तं उसमसम्मं लहइ जीवो ॥ सर्वमय है।' (विभा ५३०) एग पि असद्दहओ जं दव्वं पज्जवं च मिच्छत्तं । उदयावलिका में प्राप्त मिथ्यात्व मोह के क्षय तथा (विभा २७५२) अनुदीर्ण अवशिष्ट मोहकर्म के उपशमन से अन्तर्मुहर्त जो किसी एक तत्त्व, द्रव्य या पर्याय पर भी अश्रद्धा अवधि वाला उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है। करता है, वह भी मिथ्यात्वी कहलाता है । उवसामगसे ढिगयस्स होइ उवसामियं तु सम्मत्तं । अवश्यं हि स कश्चिदात्मनः परिणामोऽस्ति येन जो वा अकयतिपुंजो अखवियमिच्छो लहइ सम्मं ।। सत्यपि जोवादिस्वरूपावबोधे कस्यचिदेव सम्यक प्रतिपत्ति (विभा ५२९) भवति न पुनः सर्वस्य । (उशावृ प ५६३) उपशम श्रेणि में आरूढ व्यक्ति के दर्शन सप्तक की सम्यक्त्व निश्चित ही आत्मा का एक ऐसा परिणाम प्रकृतियों का उपशम होने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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