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सामाचारी
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उपसम्पदा सामाचारी
चाहता है, वहां वह इच्छाकार का प्रयोग करे-आपकी स्वीकृति) के लिए तथाकार (यह ऐसे ही है) का प्रयोग इच्छा हो तो आप मेरा यह कार्य कर दें, किन्तु जबरन करे। उनसे वह कार्य न करवाए ।
कप्पाकप्पे परिणिट्रियस्स ठाणेसु पंचसु ठियस्स । अब्भुवगमंमि वज्जइ अब्भत्थेउं ण वट्टइ परो उ । संजमतववड्ढगस्स उ अविकप्पेणं तहाकारो॥ अणिगृहियबलविरिएण साहुणा ताव होयव्वं ॥ वायणपडिसुणणाए उवएसे सुत्तअत्थकहणाए । जइ हुज्ज तस्स अणलो कज्जस्स वियाणती ण वा वाणं । अवितहमेयं ति तहा पडिसुणणाए तहक्कारो॥ गेलन्नाइहिं वा हुज्ज विवडो कारणेहिं सो ॥
(आवनि ६८८,६८९) राइणियं वज्जेत्ता इच्छाकारं करेइ सेसाणं ।
जो कल्प-अकल्प (विधि-निषेध) का ज्ञाता है, महाएवं मझं कज्जं तुन्भे उ करेह इच्छाए । व्रतों में स्थित है, संयम और तप से सम्पन्न है, उसके
(आवनि ६६९-६७१) प्रति तथाकार का प्रयोग करना चाहिये। साधु अपने बल-वीर्य का गोपन नहीं करते, अत: गुरु जब सूत्र पढाएं, सामाचारी आदि का उपदेश दें, दूसरे साधु से अपने कार्य के लिए अभ्यर्थना करना उचित
सूत्र का अर्थ बताएं अथवा कोई बात कहें, तब शिष्य को नहीं है । किंतु यदि वह प्रस्तुत कार्य को करने में समर्थ
तथाकार-आप जो कह रहे हैं, वह अवितथ (ठीक) है न हो अथवा उस कार्यविधि से अनभिज्ञ हो अथवा ग्लानवैयावत्य आदि कार्यों में व्यापत हो तो वह रत्नाधिक साधु के अतिरिक्त अन्य साधुओं से अभ्यर्थना या इच्छा
'उपसम्पदा सामाचारी कार सामाचारी का प्रयोग कर सकता है।
..."अच्छणे उवसम्पदा ।.... संजमजोए अब्भुट्टियस्स किंचि वितहमायरियं । आचार्यान्तरादिसन्निधौ अवस्थाने उप-सामीप्येन मिच्छा एतंति वियाणिऊण मिच्छत्ति कायव्वं ॥ सम्पादनं-गमनम्"""इयन्तं कालं भवदन्तिके मयाऽऽसित(आवनि ६८२) व्यमित्येवंरूपा।
(उ २६१७ शाद प ५३५) संयमयोगों की साधना में अभ्यत्थित मनि द्वारा ज्ञान आदि की उपलब्धि के लिए दूसरे गण के अन्यथा आचरण होने पर और उसकी जानकारी हो जाने
के आचार्य आदि की सन्निधि में रहना, 'मैं आपका शिष्य पर उसे मिथ्याकार सामाचारी-'मिच्छा मि दुक्कडं' का र
। हं'-इस रूप में मर्यादित काल तक शिष्यत्व स्वीकार
करना उपसम्पदा सामाचारी है। प्रयोग करना चाहिये।
उवसंपया य तिविहा णाणे तह दंसणे चरित्ते य । . मिच्छा मि दुक्कडं का अर्थ । (द्र. प्रतिक्रमण)
दसणणाणे तिविहा दुविहा य चरित्तअट्ठाए ।। मिथ्याकार सामाचारी
वत्तणा संधणा चेव गहणं सुत्तत्थतदुभए । .....मिच्छाकारो य निदाए ।।... (उ २६।६)
वेयावच्चे खमणे, काले आवकहाइ य ।। अनाचरित की निन्दा के लिए मिथ्याकार का प्रयोग
(आवनि ६९८,६९९) करना मिथ्याकार सामाचारी है।
उपसम्पदा के तीन प्रकार हैं--ज्ञान-उपसम्पदा, मिथ्येदमिति प्रतिपत्तिः, सा चात्मनो निन्दा--जुगुप्सा
दर्शन-उपसम्पदा और चारित्र-उपसम्पदा । दर्शन और
ज्ञान की उपसंपदा के तीन-तीन प्रकार और चारित्र की तस्यां, वितथाचरणे हि धिगिदं मिथ्या मया कृतमिति निन्द्यत एवात्मा विदितजिनवचनैः। (उशाव प ५३५)
उपसम्पदा के दो प्रकार हैं।
ज्ञान तथा दर्शन की उपसम्पदा के तीन-तीन __ गलत आचरण होने पर--'हा ! धिक्कार है, मैंने
प्रकारगलती की'-इस रूप में अपनी निंदा करना तथा उस
• वर्तना-पूर्वगृहीत सूत्र का परावर्तन । आचरण के प्रति जूगुप्सा करना मिथ्याकार है।
० संधना –विस्मृत सूत्र की पुनः संघटना। तथाकार सामाचारी
• ग्रहण-नए सूत्र और अर्थ का ग्रहण। ""तहक्कारो य पडिस्सुए। (उ २६१६) चारित्र की उपसम्पदा के दो प्रकार... मुनि प्रतिश्रवण (गुरु द्वारा प्राप्त उपदेश की १. वयावृत्य के लिए।
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