Book Title: Bhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Author(s): Vimalprajna, Siddhpragna
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 712
________________ समवसरण ६६७ समवसरण (द्र. दूसरा अर्थ है---अमुक-अमुक प्रकार के अस्थि-संचय से त्रिक में स्त्री-पुरुष दोनों हैं। दूसरे त्रिक में केवल स्त्रियां उपमित शक्ति-विशेष । देवों के शरीर में अस्थियां नहीं और तीसरे त्रिक में केवल पुरुष हैं। यह प्रथम परकोटे होतीं, किन्तु वे प्रथम संहननयुक्त होते हैं अर्थात् उनमें की अवस्थिति है। प्रथम संहनन जितनी शक्ति होती है। आयाहिण पुव्वमुहो तिदिसि पडिरूवगा उ देवकया। अर्धनाराच संहनन का विच्छेद जेट्ठगणी अण्णो वा दाहिणपुब्वे अदूरंमि ।। तित्थाइसेससंजय देवी वेमाणियाण समणीओ । अज्जवइरा..."तंमि य भगवंते अद्धनारायसंघयणं भवणव इवाणमंतर जोइसियाणं च देवीओ। दस पुव्वाणि य वोच्छिण्णा । भवणवई जोइसिया बोद्धव्वा वाणमंतरसुरा य । (आवहाव १ पृ २०२, २०३) ___ आर्य वज्र (वी०नि० की छठी शताब्दी) के पश्चात् वेमाणिया य मणुया पायाहिणं जं च निस्साए । दश पूर्वी की परम्परा तथा अर्धनाराच संहनन-ये दोनों (आवनि ५५६, ५५८, ५६०) तीर्थकर पूर्वाभिमख विराजमान होते हैं। शेष तीन विच्छिन्न हो गए। संहनन : नाम कर्म की प्रकृति (द्र. कर्म) दिशाओं में देवता तीर्थंकर के प्रतिरूपों का निर्माण संहनन प्रकृति का क्षय (द्र. गुणस्थान) करते हैं। तीर्थंकर के समीप दक्षिण-पूर्व दिशा में गणधर यौगलिकों का संहनन . मनष्य) बैठते हैं। उनके पीछे-पीछे क्रमशः केवली, मनःपर्यवज्ञानी. संहनन और सामायिक (द्र. सामायिक) अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, ऋद्धिसम्पन्न मुनि तथा अन्य सब सकाममरण-संयमी का मरण । (द्र. मरण) मुनि बैठते हैं। उनके पीछे वैमानिक देवियां तथा सत्य-भाषा-भाषा का एक प्रकार। (द्र. भाषा) साध्वियां खड़ी रहती हैं। दक्षिण-पश्चिम दिशा में क्रमशः सत्य-महाव्रत-महाव्रत का एक प्रकार । भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों की देवियां खड़ी रहती हैं । उत्तर-पश्चिम दिशा में भवनपति, ज्योतिष्क सत्य-व्रत-श्रावक का एक व्रत। (द्र. श्रावक) और व्यन्तर देव खड़े रहते हैं। उत्तर-पूर्व दिशा में समभिरूढ-पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थ में वैमानिक देव, मनुष्य और महिलाएं खड़ी रहती हैं। . भेद करने वाला विचार। (द्र. नय) बिइयंमि होति तिरिया तइए पागारमंतरे जाणा । समय-काल का सर्वसूक्ष्म भाग । (द्र.काल) पागारजढे तिरियाऽवि होति पत्तेय मिस्सा वा॥ समयक्षेत्र-मनुष्यलोक । (द्र. लोक) (आवनि ५६३) दूसरे परकोटे में तिर्यंच (पशु-पक्षी) होते हैं। तीसरे समवसरण-तीर्थकरों की परिषद्, प्रवचनस्थल । परकोटे में यान-वाहन रहते हैं। परकोटे के बाहर तियंच बारह प्रकार की परिषद् भी होते हैं, मनुष्य और देव भी हो सकते हैं। एक्केक्कीय दिसाए तिगं तिगं होइ सन्निविट्ठ तु ।। प्राकार रचना आदिचरिमे विमिस्सा थीपुरिसा सेस पत्तेयं ॥ (आवनि ५६१) जत्थ अपुव्वोसरणं जत्थ व देवो महिड्ढिओ एइ । प्रत्येक दिशा में एक-एक त्रिक होता है वाउदयपुप्फवद्दलपागारतियं च अभिओगा ॥ १. दक्षिण-पूर्व में-साधु, वैमानिक देवियां और (आवनि ५४४) जिस क्षेत्र में अपूर्व अथवा भूतपूर्व समवसरण होता साध्वियां । २. दक्षिण-पश्चिम में भवनपति, ज्योतिष्क और है, वहां महद्धिक देव आते हैं। व्यन्तर देवों की देवियां। आभियोगिक देव धूलि आदि को साफ करने के लिए ३. उत्तर-पश्चिम में-भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर वहां वायु की विकुर्वणा करते हैं, भावी रेणु के संताप की देव। शांति के लिए जलवृष्टि एवं भूमी की विभूषा के लिए ४. उत्तर-पूर्व में-वैमानिक देव, मनुष्य और स्त्रियां। पुष्पवृष्टि करते हैं। फिर तीन प्राकारों की रचना करते बारह प्रकार की इस परिषद् में प्रथम और अन्तिम हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804