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योनि के प्रकार
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करने का निर्देश दिया । धर्मरुचि अनगार उस आहार को लेकर जंगल में गए । परिष्ठापन के लिए बैठे । एक बूंद नीचे गिर गई। वहां चींटियां आई और तत्काल मर गईं । 'मैं स्वयं ही इसको खा लूं जिससे अन्य जीवों का घातक न बनूं', यह सोच उन्होंने उस शाक को खा लिया । तीव्र मारणान्तिक वेदना हुई । उस वेदना को समभाव से सहन कर मुक्त हो गए । मारणान्तिक वेदना को सहन करने से योग संगृहीत होते हैं।
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इस प्रकार
४. संगपरिज्ञा योगसंग्रह
'जिनदत्त सार्थवाह चंपानगरी से अहिच्छत्रा की ओर जा रहा था । मार्ग में भीलों के आतंक से आतंकित हो वह सघन जंगल में पहुंच गया, जहां सामने अग्नि जल रही थी, पीछे से व्याघ्र आ रहे थे, दोनों ओर प्रपात थे । इस स्थिति में अपने आपको असुरक्षित जानकर जिनदत्त ने सामायिक का संकल्प ग्रहण किया और कायोत्सर्ग प्रतिमा में स्थित हो गया। जंगल के हिंस्र पशुओं ने उसे घेर लिया और मांस खाने उस पर झपट पड़े। वे नोच-नोंचकर मांस खाने लगे। जिनदत्त समभाव की श्रेणी में आरोहण करता गया । कुछ ही समय में वह सिद्ध, बुद्ध मुक्त हो गया । इस प्रकार उसने शरीर के ममत्व-त्याग से योगों का संग्रहण किया ।
(बत्तीस योगसंग्रह के अन्य उदाहरणों के लिए देखें – आवनि १२७९-१३२० २१५२-२१२)
योगसंग्रह के अपर प्रकार
बत्तीसं जोगसंगहा - धम्मो सोलसविधं एवं सुक्कंपि, एते बत्तीस जोगाणं संगहहेतू । ( आवचू २ पृ १५२) योगसंग्रह के अन्य बत्तीस प्रकार - धर्मध्यान और शुक्लध्यान के सोलह-सोलह प्रकार
प्रकार (स्वरूप), लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षाइनमें से प्रत्येक के चार-चार प्रकार होने से धर्म और शुक्ल ध्यान के बत्तीस प्रकार होते हैं । (द्र ध्यान )
- उत्पत्तिस्थान |
योनि -
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१. योनि का निर्वचन
२. योनि के प्रकार
३. सचित्त-अचित्त मिश्र योनि
४. शीत-उष्ण- मिश्र योनि
५. संवृत - विवृत मिश्र योनि
६. योनि के अन्य प्रकार
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१. योनि का निर्वचन
युवन्ति - तैजसका र्म्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकशरीरेण वैक्रियशरीरेण वाऽऽस्विति योनयो जीवानामेवोत्पत्तिस्थानानि । ( नन्दी मवृ प ८ ) जहां औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर के साथ तैजस और कार्मण शरीर का मिश्रण होता है, यह योनिजीव का उत्पत्तिस्थान है ।
योनि
२. योनि के प्रकार
जोणीओ सचित्त - सीत-संबुडादियाओ चउरासीतिलक्खविहाणा वा । ( नन्दी पृ १)
योनि के तीन-तीन प्रकार --
१. सचित्त, अचित्त, मिश्र । २. शीत, उष्ण, शीतोष्ण ।
३. संवृत, विवृत, संवृत-विवृत ।
अथवा योनि के चौरासी लाख प्रकार हैं । ( चौरासी लाख जीवयोनि
पुढवीजलजलणमारुय एक्केक्के सत्त सत्त लक्खाओ । वर्ण पत्तेय अणते दस चोट्स जोणिलक्खाओ || विलिदिए दो दो चउरो चउरो य णारयसुरेसु । तिरिए हुंति चउरो चोट्स लक्खा य मणुएसु ||
( आचारांग वृत्ति पत्र २२ ) सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्काय, सात लाख तेजस्काय, सात लाख वायुकाय, दस लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारणवनस्पतिकाय, दो लाख द्वीन्द्रिय, दो लाख त्रीन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख नारक, चार लाख देवता, चार लाख पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और चौदह लाख मनुष्य ये चौरासी लाख जीवयोनियां हैं ।
पृथ्वीकाय के मूल भेद ३५० हैं । उनको अनुक्रम से पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श और पांच संस्थान से गुणा करने पर पृथ्वीकाय की सात लाख जातियां बनती हैं। इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय में से प्रत्येक के मूलभेद ३५० हैं । इनको भी पूर्वोक्त विधि से गुणा करने पर प्रत्येक की सात-सात लाख जातियां बनती हैं। प्रत्येक वनस्पति के मूल भेद ५००, साधारण वनस्पति के ७००, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय में से प्रत्येक के १००, नारक, देवता व तिर्यंचपंचेन्द्रिय में से प्रत्येक के २०० तथा मनुष्य के ७०० मूल
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