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चक्रवर्ती और वासुदेव कब ?
जय चक्रवर्ती ने हजार राजाओं के साथ राज्य का परित्याग कर जिन भाषित दम का आचरण किया और अनुत्तर गति प्राप्त की । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती
जाईपराजिओ खलु, कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि । चुलणीए बंभदत्तो, उववन्नो पउमगुमाओ ॥ कंपिल्ले संभूओ, चित्तो पुण जाओ पुरिमतालम्मि । सेकुलम्मि विसाले, धम्मं सोऊण पव्वइओ ॥ कंपिल्लम्म य नयरे, समागया दो वि चित्तसंभूया । सुहदुक्खफल विवागं कहेंति ते एकमेकस्स ॥ ( उ १३।१-३)
जाति से पराजित हुए संभूत ने हस्तिनापुर में निदान ( चक्रवर्ती होऊं - ऐसा संकल्प ) किया । वह सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान में देव बना । वहां से च्युत होकर चुलनी की कोख में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में उत्पन्न हुआ ।
संभूत काम्पिल्य नगर में उत्पन्न हुआ । चित्र पुरिमताल में एक विशाल श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न हुआ । वह धर्म सुन प्रव्रजित हो गया । काम्पिल्य नगर में चित्र ( ब्रह्मदत्त) और सभूत ( मुनि) दोनों मिले। दोनों ने परस्पर एक दूसरे के सुख-दुःख के विपाक की बात की । आसिमो भायरा दो वि, अन्नमन्नवसा णुगा । अन्नमन्नहिए सिणो अन्नमन्नमणुरता, दासा दसणे आसी, हंसा मयंगतीरे, सोवागा देवाय देवलोम्मि, आसि अम्हे इमा नो छट्टिया जाई, अन्नमन्नेण
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मिया कालिंजरे नगे ।
कासिभूमिए ॥ महिड्डिया | जा विणा ॥ ( उ १३।५-७ )
ब्रह्मदत्त ने मुनि से कहा
हम दोनों भाई थे - एक दूसरे के वशवर्ती, परस्पर अनुरक्त और परस्पर हितैषी । हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृतगंगा के किनारे हंस और काशी देश में चांडाल थे । हम दोनों सौधर्म देवलोक में महान् ऋद्धि वाले देव थे । यह हमारा छठा जन्म है, जिसमें हम एक दूसरे से बिछुड़ गये । पंचाल या विय बम्भदत्तो, साहुस्स तस्स वयणं अकाउं अणुत्तरे भुंजिय कामभोगे, अणुत्तरे सो नरए पविट्ठो ॥ ( उ १३ । ३४)
पंचाल जनपद के राजा ब्रह्मदत्त ने मुनि के वचन
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चक्रवर्ती
का पालन नहीं किया । वह अनुत्तर कामभोगों को भोगकर अनुत्तर (अप्रतिष्ठान ) नरक में गया । ६. चक्रवर्ती और इन्द्र भव्य
पोग्गल परियदृद्धं जं नरदेवंतरं सुए भणियं । तो सो भव्वो, कालो जमयं निव्वाणभावीणं ॥ नरदेवाणं भंते! केवतियं कालं अंतरं होइ ? गोमा ! जहन्नेणं साइरेगं सागरोवमं, उक्कोसेणं अनंतं कालं - अवढं पोग्गलपरियटं देसूणं । (भग १२ । १९३ )
चक्रवर्ती भव्य एव भवति नाभव्यः यस्मादयमपार्ध पुद्गलपरावर्त लक्षणोऽन्तरकालो भाविनिर्वाणपदानामेव घटते । अभव्यानां तु भवनपत्यादिभाविदेवानामुत्कृष्टतो वनस्पतिकालस्यैवान्तराऽभिधानात् । किञ्च, अन्यत्रापि देवेन्द्र - चक्रवर्तित्वादिपदयोग्यकर्मणां बन्धो भव्यानामेवोक्तः । ( विभा ८०५ मवृ पृ ३२९) भगवती सूत्र में चक्रवर्ती का अन्तरकाल जघन्यतः सातिरेक सागरोपम और उत्कृष्टतः देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्त्त प्रतिपादित है । इस आधार पर कहा गया है। कि चक्रवर्ती भव्य ही होता है, अभव्य नहीं । जो भविष्य में मुक्त होने वाले जीव हैं, उन्हीं के लिए अंतरकाल अपार्ध पुद्गलपरावर्त्तं घटित होता है । भवनपति आदि अभव्य देवों का अन्तरकाल अनन्त है । इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदों के योग्य कर्मों का बंध भव्य जीवों के ही होता है - ऐसा अन्य ग्रन्थों में भी प्रतिपादित है । ७. चक्रवर्ती और वासुदेव कब ?
उस भरहो अजिए सगरो मघवं सणकुमारो अ । धम्मस्स य संतिस्स य जिणंतरे चक्कवट्टिदुगं ॥ संती कुंथू अ अरो अरहंता चेव चक्कवट्टी अ । अरमल्ली अंतरे उ हवइ सुभूमो अ कोरव्वो ॥ नमिनेमिसु जयनामो अट्ठासंतरे मुणिसुव्वए नमिमि अ हुंति दुवे पउमनाभहरिसेणा । बंभो ॥ पंचरहंते वंदति केसवा पंच आणुपुब्बीए । सिज्जंस तिविट्ठाई धम्म पुरिससीहता ॥ अरमल्लिअंतरे दुणि केसवा पुरिसपुंडरिअदत्ता । मुणिसुव्वयनमिअंतरि नारायण कण्हु नेमिमि ॥
( आवनि ४१६-४२० ) ( किस तीर्थंकर के कालखंड में कौन से चक्रवर्ती और वासुदेव हुए ? उनकी आयु और अवगाहना कितनी थी, इसका विवरण इस प्रकार है - )
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