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जीवनिकाय
छिक्कपरोइया छिक्कमेत्तसंकोयओ कुलिंगो व्व ।
आसय संचाराओ वियत्त ! वल्लीवियाणाई || सम्मादओ य साव- पबोह-संकोयणाइओऽभिमया । लाओ य सद्दाइ विसयकालोवलंभाओ || ( विभा १७५४, १७५५)
३. लताएं वृक्ष आदि के सहारे ऊपर चढती हैं । ४. शमी आदि में निद्रा, जागृति, संकोच आदि होते हैं ।
५. बकुल, अशोक आदि वृक्ष शब्द रूप आदि विषयों का यथासमय परिभोग करते हैं ।
१. कोई वनस्पति स्पर्श से बढ़ने लगती है ।
२. वनस्पति कुलिंग कीट की भांति स्पर्शमात्र से कोई अन्तर नहीं होता, समानता होती है ।
सिकुड़ती है ।
समान होते हैं ।
पकित्तिया ।
य ॥
केदकंदली । कुडुंब ॥
साहारणसरीरा उ णेगहा ते सिंगबेरे आलुए मूलए चेव हिरिली सिरिल सिस्सिरिली, जावई पलं लसणकन्दे य, कंदली य लोहिणीहू य थिय, कुहगा य कण्हे य वज्जकंदे य, कंदे सूरणए तहा अस्सकण्णी य बोद्धव्वा, सीहकण्णी तहेव य । मुसुंढी य हलिद्दा य एवमायओ ॥
य । 11
गहा
( उ ३६ ९६-९९ ) साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीवों के अनेक प्रकार है - आलू, मूली, अदरक, हिरलीकन्द, सिरिलीकंद, सिस्सिरिलीकंद, जवाइकंद, केदकदलीकन्द, प्याज, लहसुन, कन्दली, कुस्तुम्बक, लोही, स्निहु, कुहक, कृष्ण, वज्रकन्द, सूरणकन्द, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुंढी, हरिद्रा आदि - ये सब साधारण शरीर हैं ।
सव्वो वि किसलओ खलु उप्पयमाणो अनंततो होइ । सो चेव बड्ढमाणो होति अणंतो परितो वा ॥ (दअचू पृ७६) सारे किसलय उत्पत्ति के समय अनन्तकायिक साधारणशरीर होते हैं। बढ़ने पर अनन्त भी रह सकते हैं और प्रत्येकशरीर भी बन सकते हैं । प्रत्येक शरीरी
Treaserइया बीया चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं । (द ४।८) शस्त्रपरिणति से पूर्व बीजपर्यन्त ( मूल से लेकर बीज तक) वनस्पतिकायिक चित्तवान् कहे गए हैं। वे अनेक जीव और पृथक् सत्त्वों (प्रत्येक जीव के स्वतंत्र अस्तित्व) वाले हैं ।
प्रकार,
दुविहा वणस्सईजीवा, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा
वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं बादर । इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद होते हैं ।
बादर वनस्पति के प्रकार
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बायरा जे उपज्जत्ता, दुविहा ते साहारणसरीरा य, पत्तेगा य
वियाहिया || तहेव
य ॥
( उ ३६।९३)
बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक जीवों के दो भेद होते हैं- साधारणशरीर और प्रत्येकशरीर ।
साधारण शरीरी
पुणो ॥ ( उ ३६।९२ ) सूक्ष्म और
ये दो-दो
साधारणम् - अनन्तजीवानामपि समानमेकं शरीरं येषां तेऽमी साधारणशरीराः ।
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प्रत्येक शरीरी
साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवानां साहारणलक्खणं एयं ॥
( उशावृप ६९१ ) जिसके एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं, उसे साधारण शरीर कहा जाता है ।
इन जीवों के आहार, उच्छ्वासनिःश्वास आदि में
प्रत्येकम् - एकैकशो विभिन्नं शरीरमेषामिति प्रत्येकशरीरा:, तेषां हि यदेकस्य शरीरं न तदन्यस्येति । (उशावृप ६९१ ) जिसके एक-एक शरीर में एक-एक जीव होता है, उसे प्रत्येक शरीर कहा जाता है । इन जीवों के असंख्य शरीरों का पिंड दृष्टिगत होता है । उनमें जो एक जीव का शरीर है, वह अन्य जीव का शरीर नहीं होताप्रत्येक जीव का स्वतंत्र शरीर होता है ।
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