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भाव
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कर्म और चतुःस्थानक आदि बंध
तरह अत्यन्त निर्मल होता है, किन्तु सम्पूर्ण गुणों का घात बन्धमेव नायान्ति, कुतः?, तस्यामवस्थायां तद्गतरसकरने से सर्वघाति कहलाता है।
स्थानकचिन्तायामपि नरकगतिप्रायोग्यं बध्नतोऽतिसङ्-ि देशघाति प्रकतियों का रस यद्यपि सैकड़ों छिद्रों से क्लष्टस्यापि वैक्रियतैजसादिकाः प्रकृतयो बन्धमायान्ति, युक्त चटाई के समान, सूक्ष्म छिद्रों वाले कंबल के समान,
तासामपि स्वभावतो द्विस्थानकरसस्यैव बन्धो नैकस्थाअल्प स्नेह वाला और अविशुद्ध होता है किन्तु एक देश नस्य, ततः शभप्रकतीनां व्यत्यासयोजना द्विस्थानकरसका घात करने के कारण देशघाति कहलाता है।
बन्धादारभ्य कर्तव्या।
(नन्दीमव प ७८) अघातिनीनां तु रसस्पर्द्ध कानि स्वरूपेण न सर्व
पर्वत की रेखा के सदृश अनन्तानुबन्धी क्रोधप्रकृति घातीनि नापि देशघातीनि, केवलं सर्वघातिरसस्पर्द्धक
का चतुःस्थानक बन्ध होता है। भूमि की रेखा के सदश संघर्षतः सर्वघातिरससदृशानि भवन्ति, यथा स्वयमचौरा
अप्रत्याख्यानावरण क्रोधप्रकृति का त्रिस्थानक बंध होता इति चौरसम्पर्कत: चौरप्रतिभासाः । (नन्दीमवृ प ७९)
है। बाल की रेखा के सदश प्रत्याख्यानावरण क्रोध अघाति प्रकृतियों के रसस्पर्धक सर्वघाति और देश
प्रकृति का द्विस्थानक बंध होता है। जल की रेखा के घाति दोनों प्रकार के नहीं होते । किन्तु ये सर्वघाति
सदृश संज्वलन क्रोधप्रकृति का एक स्थानक बन्ध होता है। रसस्पर्धक के संघर्षण से सर्वधातिरस के सदृश हो जाते हैं,
शुभ प्रकृतियों का बन्ध इसके विपरीत होता है। जैसे-चोरी नहीं करने वाला चोर के सम्पर्क से चोर
अत्यन्त विशुद्ध अवस्था में चतुःस्थानक तथा मंद और दिखाई देता है।
मन्दतर विशद्धि में क्रमशः त्रिस्थानक और द्विस्थानक सर्वघाति रसस्पर्धक देशघाति में परिणत
बन्ध होता है। अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम में भी एकदेशघातिनीनां मतिज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीनां । स्थानकरस वाली शुभ प्रकति का बन्ध नहीं होता। सर्वघातीनि रसस्पर्द्धकानि अध्यवसायविशेषतो देश- यथा-नरकगतिप्रायोग्य बन्ध करता हुआ जीव उन घातीनि कत्त" शक्यन्ते, ते पुदगला: केवलज्ञानकेवल- संक्लिष्ट परिणामों में वैक्रिय और तैजस प्रकति का भी दर्शनावरणयोर्योग्या ये द्विस्थानकरसपरिणता अपि न बन्ध करता है किन्तु वे प्रकृतियां भी द्विस्थानकरस देशघातिनो भवन्ति, नापि तेषां विपाकोदयनिरोधसम्भवः, वाली होती हैं, एकस्थानकरस वाली नहीं । अतः शुभ शेषाणां तु सर्वघातिप्रकृतीनां रसस्पर्द्ध कानि भवन्त्येवाध्य- प्रकतियों के बन्ध का प्रारम्भ द्विस्थानक से ही होता है, वसायविशेषतो विपाकोदयविष्कम्भभाजि।
एक स्थानक से नहीं।
(नन्दीमवृ ७९-८०) द्विधा घातिन्योऽशुभप्रकृतयः, तद्यथा-सर्वघातिन्यो मतिज्ञान आदि देशघाति प्रकृतियों के सर्वघाति देशघातिन्यश्च । तत्र याः सर्वघातिन्यः तासां जघन्यरसस्पर्धक अध्यवसाय विशेष से देशघाति में परिणत हो पदेऽपि द्विस्थानक एव रसो बन्धमायाति, नकस्थानकः, सकते हैं किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन के आवारक
तथास्वाभाव्यात् । तथाहि-क्षपक श्रेण्यारोहेऽपि सूक्ष्मपुद्गल द्विस्थानकरस वाले होने पर भी अध्यवसाय
सम्परायगुणस्थानकचरमसमयेऽपि वर्तमानस्य केवलज्ञानाविशेष से देशघाति नहीं हो सकते और न विपाकोदय में
वरणकेवलदर्शनावरणयोः रसबन्धो द्विस्थानक एवेति, उनका निरोध ही संभव है। शेष सर्वघाति प्रकृतियों के
नकस्थानकः । यास्तु देशघातिन्यः तासां श्रेण्यारोहाभावे सर्वघाति रसस्पर्धक अध्यवसाय विशेष से देशघाति हो
बन्धमागतानां नियमात् सर्वघातिनमेव रसं बध्नाति... सकते हैं और तब विपाकोदय का निरोध भी संभव है।
श्रेण्यारोहे त्वनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानकाद्धायाः कर्म और चतुःस्थानक आदिबंध।
संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु तत ऊर्ध्वमेकस्थानकरसपव्वयभूमीवालुयजलरेहासरिस संपराएसं । बन्धसम्भवः ।.. चउठाणाई असुभाण सेसयाणं तु वच्चासो ।। आवरणमसव्वग्धं पुंसंजलणंतरायपयडीओ।
अत्यन्त विशुद्धौ वर्तमान : शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानक- चउठाणपरिणयाओ दुतिचउठाणाउ सेसाओ ।। मेव रसं बध्नाति, ततो मन्दमन्दतरविशुद्धौ त्रिस्थानक
(नन्दीमवृ ७८,७९) द्विस्थानकं वा, सङ्क्लेशाद्धायां तु वर्तमानस्य शुभप्रकृतयो अशभ घातिकर्मों की प्रकृतियों के दो प्रकार हैं
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