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कायोत्सर्ग
६. कायोत्सर्ग के दोष
घोडग लाइ खंभे कुड्डे माले अ सवरि बहु नियले । लंबुत्तर थण उद्धी संजय खलि वायसकविट्ठे ॥ सुक्कंपि सूई ( अ ) अंगुलिभमुहा य वारुणी पेहा । ... ( आवनि १५४६, १५४७ )
कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष हैंघोटक - अश्व की भांति पैरों को विषम स्थिति में रखना ।
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लता - हवा से प्रेरित लता की तरह प्रकंपित होना । स्तंभ
} खंभे या भींत का सहारा लेकर खड़ा होना ।
कुड्य माल - ऊपर की छत से सिर को सटाकर खड़ा होना । शबरी - नग्न भीलनी की तरह अपने गुह्य प्रदेश को हाथों से ढककर खड़ा होना ।
बहू - कुलवधू की तरह सिर को नमाकर खड़ा रहना । निगड - पैरों को सटाकर या चौड़ा कर खड़ा होना । लम्बोत्तर - चोलपट्ट को नाभि के ऊपर बांधकर नीचे उसे घुटनों तक रखना ।
स्तन - दंश-मशक से बचने के लिए अथवा अज्ञान से चोलपट्टको स्तनों तक बांधकर खड़ा होना । उद्धि - एड़ियों को सटाकर, पंजों को फैलाकर खड़े होना । यह बाह्य उद्धिका है । दोनों पैरों के अंगूठों को सटाकर, एड़ियों को फैलाकर खड़े होना, यह आभ्यन्तरिक उद्धिका है ।
संयंती - सूत के कपड़े या कम्बल से शरीर को साध्वी की भांति ढंककर खड़े होना ।
खलीन - रजोहरण को आगे कर खड़े होना ।
वायस - कौवे की भांति दृष्टि को इधर-उधर घुमाना । कपित्थ - जूं के भय से कपित्थ की भांति गोलाकार में जंघाओं के बीच कपड़ा रखकर खड़े होना । शीष प्रकंपन --यक्षाविष्ट व्यक्ति की भांति सिर को धुनते हुए कायोत्सर्ग करना ।
मूक- प्रवृत्ति के निवारण के लिए कायोत्सर्ग में 'हूं हूं' ऐसे शब्द करना ।
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भू-भौहों को नचाना ।
वारुणी- कायोत्सर्ग में मदिरा की भांति बुदबुदाना । प्रेक्षा- बंदर की भांति होठों को चालित करना । १०. कायोत्सर्ग के परिणाम
कायोत्सर्ग के परिणाम
काउस्सग्गेणं भंते! जीवे किं जणयइ ?
काउस्सग्गेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ । विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्दुयहियए ओहरियभारोव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहंसुहेणं विहरइ ।
( उ २९।१३)
भंते! कायोत्सर्ग से जीव क्या प्राप्त करता है ? कायोत्सर्ग से जीव अतीत और वर्तमान के प्रायश्चित्तोचित कार्यों का विशोधन करता है । ऐसा करने वाला व्यक्ति भार को नीचे रख देने वाले भारवाहक की भांति स्वस्थ हृदय वाला अर्थात् हल्का हो जाता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विहार करता है ।
देहम जडसुद्धी, सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा । भाइ य सुहं भाणं, एगग्गो काउस्सग्गमि ॥ ( आवनि १४६२ ) कायोत्सर्ग के पांच लाभ निर्दिष्ट हैं-१. देहजाड्यशुद्धि - श्लेष्म आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट होती है ।
२. मतिजाड्यशुद्धि- - जागरूकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है ।
३. सुख-दुःख- तितिक्षा - सुख-दुःख को सहन करने की शक्ति का विकास होता है ।
४. अनुप्रेक्षा - भावनाओं से मन को भावित करने का अवसर प्राप्त होता है ।
५. एकाग्रता - एकाग्रचित्त से शुभध्यान करने का अवसर प्राप्त होता है ।
अंगुलि - आलापकों को गिनने के लिए अंगुलियों को तोड़ देता है ।
चालित करना ।
काउस्सग्गे जह सुट्टियस्स भज्जंति अंगमंगाई । इयभिदति सुविहिया अट्ठविहं कम्मसंघायं ॥
( आवनि १५५१ ) लम्बे समय तक खड़े होकर कायोत्सर्ग करने वाले मुनि के अंगोपांग टूटने लगते हैं, उसी प्रकार कायोत्सर्ग करने वाला मुनि अपने आठ प्रकार के कर्मसंघात को
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