Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust View full book textPage 7
________________ संसारकाणणे पुण वंभममाणेहिं भव्वजीवेहिं । णिव्वाणस्स दु मग्गो लद्धो तुम्हं पसाएण ॥७॥ हे आचार्य ! संसाररूपी अटवीमें भ्रमण करनेवाले भव्य जीवोंने आपके प्रसादसे निर्वाणका मार्ग प्राप्त किया है ॥७॥ अविसुद्धलेस्सरहिया विसुद्धलेस्साहि परिणदा सुद्धा । रुदट्टे पुण चता धम्मे सुक्के य संजुत्ता ॥८॥ वे आचार्य, अविशुद्ध अर्थात् कृष्ण, नील और कापोत लेश्यासे रहित तथा विशुद्ध अर्थात् पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंसे युक्त होते हैं। रौद्र तथा आर्तध्यानके त्यागी और धर्म्य तथा शुक्लध्यानसे सहित होते हैं॥८॥ उग्गहईहावायाधारणगुणसम्पदेहिं संजुत्ता । वंदामि ॥९॥ सुत्तत्थभावणाए भावियमाणेहिं वे आचार्य, आगमके अर्थकी भावनासे भाव्यमान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा नामक गुणरूपी संपदाओंसे संयुक्त होते हैं। उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ९ ॥ तुम्हं गुणगणसंथुदि अजाणमाणेण जो मया वृत्तो । देउ मम वोहिलाहं गुरुभत्तिजुदत्थओ णिच्चं ॥१०॥ हे आचार्य ! आपके गुणसमूहकी स्तुतिको न जानते हुए मैंने जो बहुत भारी भक्तिसे युक्त स्तवन कहा है वह मेरे लिए निरन्तर बोधिलाभ -- रत्नत्रयकी प्राप्ति प्रदान करे ॥१०॥ इच्छामि भंते आयरियभत्ति काउसग्गो कओ तस्सालोचेओ सम्मणाणसम्मदंसणसम्मचरित्तजुत्ताणं पंचविहाचाराणं आयरियाणं आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अच्चेमि पूजेमि वंदामि नमस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं । हे भगवन्! मैंने आचार्यभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया है। उसकी आलोचना करना चाहता हूँ। जो सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रसे युक्त हैं, तथा पांच प्रकारके आचारका पालन करते हैं ऐसे आचार्योंकी, आचारांग, आदि श्रुतज्ञानका उपदेश देनेवाले उपाध्यायोंकी और रत्नत्रयरूपी गुणोंका पालन करनेमें लीन समस्त साधुओंकी मैं निरन्तर अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, उसके फलस्वरूप मेरे दुःखोंका क्षय हो, कर्मोंका क्षय हो, रत्नत्रयकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, समाधिमरण हो और मेरे लिये जिनेन्द्र भगवान्के गुणोंकी प्राप्ति हो । (6)Page Navigation
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