Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 6
________________ भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव रचित आचार्यभक्तिः (आर्या) देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयणकायसंजुता। तुम्हं पायपयोरुहमिह मंगलमत्थु मे णिचं ॥१॥ देश, कुल और जातिसे तथा विशुद्ध, मन, वचन, कायसे संयुक्त हे आचार्य! तुम्हारे चरणकमल मुझे इस लोकमें नित्य ही मंगलरूप हो॥१॥ सगपरसमयविदण्डू आगमहेदुहिं चावि जाणित्ता। सुसमत्था जिणवयणे विणये सत्ताणुरूवेण॥२॥ वे आचार्य स्वसमय और परसमयके जानकार होते हैं, आगम और हेतुओके द्वारा पदार्थोंको जानकर जिनवचनोंके कहनेमें अत्यन्त समर्थ होते हैं और शक्ति अथवा प्राणियोंके अनुसार विनय करने में समर्थ रहते हैं॥२॥ बालगुरुबुड्ढसेहे गिलाणथेरे य खमणसंजुता। वट्ठावयगा अण्णे दुस्सीले चापि जाणित्ता ॥३॥ ___वे आचार्य, बालक, गुरु, वृद्ध, शैक्ष्य रोगी और स्थविर मुनियोंके विषयमें क्षमासे सहित होते हैं तथा अन्य दुःशील शिष्योंको जानकर सन्मार्गमें वर्ताते हैं--लगाते हैं॥३॥ वदसमिदिगुत्तिजुत्ता मुत्तिपहे ठावया पुणो अण्णे। अज्झावयगुणणिलया साहुगुणेणावि संजुत्ता ॥४॥ वे आचार्य व्रत, समिति और गुप्तिसे सहित होते हैं, अन्य जीवोंको मुक्तिके मार्गमें लगाते हैं, उपाध्यायोंके गुणोंके स्थान होते हैं तथा साधु परमेष्ठीके गुणोंसे संयुक्त रहते हैं॥४॥ उत्तमखमाए पुढवी पसण्णभावेण अच्छजलसरिसा। कम्मिंधणदहणादो अगणी वाऊ असंगादो॥५॥ वे आचार्य उत्तमक्षमासे पृथिवीके समान हैं, निर्मलभावसे स्वच्छ जलके सदृश हैं, कर्मरूपी ईंधनके जलानेसे अग्नि स्वरूप हैं तथा परिग्रहसे रहित होनेके कारण अग्निरूप हैं॥५॥ गयणमिव णिरुवलेवा अक्खोहा सायरुब्ब मुणिवसहा। एरिसगुणणिलयाणं पायं पणमामि सुद्धमणो।।६।। वे मुनिश्रेष्ठ---आचार्य, आकाशकी तरह निर्लेप और सागरकी तरह क्षोभरहित होते हैं। ऐसे गुणोके धर आचार्य परमेष्ठीके चरणोंको मैं शुद्धमनसे नमस्कार करता हूँ॥६॥ (5)

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